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भांति, एक प्रतिनिधि की भांति नहीं होता। मध्य में कुछ भी नहीं है। तुम और यथार्थ एक हो। वह जान जो मन के माध्यम से आता है इस जान की तुलना में कुछ भी नहीं है जो समाधि के माध्यम से घटता है
'अपने उद्देश्य को परिपूर्ण कर लिए जाने के कारण तीनों गुणों में परिवर्तन की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है।'
समाधिस्थ व्यक्ति के लिए सारा संसार रुक जाता है, क्योंकि अब संसार के जारी रहने की कोई आवश्यकता न रही। परम को उपलब्ध कर लिया गया है। संसार का अस्तित्व एक परिस्थिति की भांति होता है। संसार का अस्तित्व तुम्हारे विकास के लिए है। विद्यालय का अस्तित्व सीखने के लिए है। जब तुमने पाठ सीख लिया है तो विद्यालय तुम्हारे लिए किसी उपयोग का नहीं है, तुमने परीक्षा पास कर ली है। जब व्यक्ति संबुद्ध हो जाता है तो उसने संसार की परीक्षा को उत्तीर्ण कर लिया है। अब विद्यालय का उसके लिए कोई कार्य नहीं रह गया। अब वह विद्यालय को विस्मृतकर सकता है और विद्यालय उसको भुला सकता है। वह विद्यालय के पार चला गया है, वह विकसित हो गया है। उस अवस्था की अब और आवश्यकता नहीं रही।
यह संसार एक परिस्थिति है : तुम्हारे लिए यह भटक जाने और वापस घर लौट आने की परिस्थिति है। यह खो जाने की और फिर वापस लौट आने की एक परिस्थिति है। यह परमात्मा को भूल जाने और उसको पुनः स्मरण कर लेने की एक परिस्थिति है।
लेकिन ऐसी परिस्थिति क्यों? क्योंकि एक सूक्ष्म नियम है यदि तुम परमात्मा को भूल न सको, तो तुम उसको याद नहीं कर सकते। यदि उसको भुला देने की कोई संभावना न हो, तो तुम कैसे याद रखोगे, तुम याद क्यों करोगे? उसे जो सदैव उपलब्ध है सरलता से भुलाया जा सकता है। सागर में रहती हुई मछली कभी सागर को नहीं जान पाती, कभी सागर से उसका आमना-सामना नहीं होता। वह इसी में जीती है, उसका जन्म इसी में हुआ है, वह इसी में मर जाती है, लेकिन सागर को कभी जान नहीं पाती है। यदि वह सागर को जान पाती है तो यह केवल एक स्थिति में होता है : जब उसे सागर से बाहर निकाल लिया जाता है। तब अचानक वह सजग होती है कि यह सागर उसका जीवन था। जब मछली को तट पर रेत में फेंक दिया जाता है, तभी वह जान पाती है कि सागर क्या है।
जानने का कोई दूसरा
हमें परमात्मा के सागर से बाहर फेंक दिए जाने की आवश्यकता थी; उसको उपाय था भी नहीं। सजग होने के लिए यह संसार एक महत परिस्थिति है। संताप है वहां, पीड़ा है वहां लेकिन यह सभी अर्थपूर्ण है। संसार में कुछ भी अर्थहीन नहीं है। दुख अर्थपूर्ण है; दुख इस प्रकार से है जैसे कि मछली तट पर रेत में दुखी है, और सागर में जाने के सारे प्रयास कर रही है। अब यदि मछली सागर में वापस लौट जाती है तो यह जान लेगी। कुछ भी बदला नहीं है- सागर वही है, मछली भी वही है लेकिन उनका संबंध आत्यंतिक रूप से बदल गया है। अब वह जान जाएगी, यह है सागर