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________________ अब विज्ञान एक नियम को जान चुका है : गुरुत्वाकर्षण। वितान को अभी भी गुरुत्वाकर्षण बल का एक और आयाम-ऊपर की ओर गिरने का आयाम देने के लिए एक पतंजलि की आवश्यता है। तभी जीवन पूर्ण हो जाता है। तुम 'गुरुत्वाकर्षण' और 'प्रसाद' का मिलन स्थल हो। तुम्हारे भीतर प्रसाद और गुरुत्वाकर्षण एक-दूसरे को काट रहे हैं। तुम अपने भीतर पृथ्वी का कुछ लिए हो और कुछ आकाश का। तुम वह क्षितिज हो जहां पृथ्वी और आकाश मिल रहे हैं। यदि तुम पृथ्वी को बहुत अधिक पकड़ लेते हो, तो तुम पूरी तरह से भूल जाओगे कि तुम आकाश से, अनंत ' अंतरिक्ष से, उस पार से संबंधित हो। एक बार तुम अपने पार्थिव भाग की पकड़ छोड़ दो, अचानक तुम ऊपर उठने लगते हो। 'जब व्यक्ति विशेष को देख लेता है, तो उसकी आत्मभाव की भावना मिट जाती है।' तदा विवेकनिम्न कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्। 'तब विवेक उन्मुख चित्त कैवल्य की ओर आकर्षित हो जाता है। एक नया गुरुत्वाकर्षण कार्य करना आरंभ कर देता है। मुक्ति और कुछ नहीं बल्कि प्रसाद के प्रवाह में प्रविष्ट हो जाना है। तुम अपने आप को मुक्त नहीं कर सकते, तुम केवल अवरोधों का त्याग कर सकते हो; मुक्ति तुमको घटित होती है। क्या तुमने चुंबक को देखा है? लोहे के छोटे-छोटे टुकडे इसकी ओर खिंच जाते हैं। तुमको दिखाई पड़ सकता है कि वे छोटे- छोटे .लोहे के टुकड़े चुंबक की ओर दौड़ रहे हैं, लेकिन अपनी आंखों से धोखा मत खाओ। वास्तव में वे दौड़ नहीं रहे हैं, चुंबक उनको खींच रहा है। सतह पर ऐसा प्रतीत होता है कि लोहे के छोट-छोटे टुकडे चल रहे है, चुंबक की ओर जा रहे हैं। लेकिन ऐसा केवल सतह पर है। गहराई में कुछ ठीक विपरीत घटित हो रहा है, वे चुंबक की ओर नहीं जा रहे हैं, चुंबक उनको अपनी ओर खींच रहा है। वास्तव में यह चुंबक है जो उन तक पहुंचा है। चुंबकीय क्षेत्र के साथ इसने उनसे संपर्क किया है, उनको स्पर्श किया है, उनको खींच लिया है। यदि लोहे के ये छोटे-छोटे कण मुक्त हैं, किसी से बंधे हुए नही हैं-चट्टान में फंसे हुए नहीं हैंतभी चुंबक उनको खींच सकता है। यदि वे किसी चट्टान में फंसे हुए हों, तो चुंबक उनको चला जाएगा, लेकिन वे खिंच न पाएंगे, क्योंकि वे फंसे हुए हैं। ठीक-ठीक यही घटित होता है, एक बार तुमको विवेक द्वारा बोध हो जाए कि तुम शरीर नहीं हो, तो तुम चट्टान से अब नहीं बंधे रह सकते, अब तुम पृथ्वी के साथ बंधन में नहीं हो। तुरंत ही परमात्मा का चुंबक कार्य करना आरंभ कर देता है। ऐसा नहीं है कि तुम परमात्मा तक पहुंचते हो। वास्तव में परमात्मा तुम तक पहले ही पहुंच चुका है। तुम उसके चुंबकीय क्षेत्र में हो, किंतु किसी से आसक्त हो। इस आसक्ति को त्याग दो और तुम धारा में हो। बुदध एक शब्द प्रयोग किया करते थे. स्रोतापन्न, धारा में प्रविष्ट हो जाना। वे कहा करते थे, एक बार तुम धारा में प्रविष्ट हो जाओ, फिर वह धारा तुमको महासागर में ले जाती है। तब तुमको कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। एक मात्र बात है,
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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