SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हुए या कठिन है यह क्योंकि जब तुम अपने प्रति सजग हो जाते हो तो तुम वृक्ष को भूल जाते हो और जब तुम वृक्ष के प्रति सजग होते हो तो तुम स्वयं को भूल जाते हो। लेकिन धीरे- धीरे व्यक्ति संतुलन बनाना सीख लेता है, ठीक वैसे ही जैसे तनी हुई रस्सी पर चलने वाला व्यक्ति संतुलन सीख लेता है । आरंभ में यह कठिन, खतरनाक संकटपूर्ण होता है, किंतु धीरे धीरे व्यक्ति संतुलन बनाना सीख लेता है। बस प्रयास करते चले जाओ। जब कभी तुमको साक्षी होने का अवसर मिले इसको गवाओ मत, क्योंकि साक्षीभाव से अधिक मूल्यवान और कुछ भी नहीं है। किसी कृत्य को करते हुए, च भोजन करते हुए या स्थान करते हुए साक्षी भी हो जाओ। फव्वारे से अपने ऊपर पानी गिरने दो, किंतु तुम भीतर सजग बने रहो और देखो कि क्या घटित हो रहा है-पानी का ठंडापन और सारे शरीर में सनसनाहट की अनुभूति, तुमको घेरता हुआ एक विशेष प्रकार का मौन, तुम्हारे भीतर एक अच्छेपन की भावना का उदय होना लेकिन साक्षी बने रहना जारी रखो तुमको प्रसन्नता अनुभव हो रही है, बस प्रसन्न अनुभव करना पर्याप्त नहीं है - साक्षी हो जाओ। बस देखते रहो- मैं प्रसन्नता अनुभव कर रहा हूं.. मैं उदासी अनुभव कर रहा हूं मैं भूखा अनुभव कर रहा हूं-देखते चले जाओ। धीरे-धीरे तुम देख लोगे कि प्रसन्नता तुमसे अलग है, अप्रसन्नता भी तुमसे अलग है। वह सभी कुछ जिसके तुम साक्षी हो सकते हो, तुमसे भिन्न है। तुम साक्षी के साक्षी नहीं हो सकते, वही प्रभु है नहीं जा सकते, तुम ही प्रभु हो । अस्तित्व का परम केंद्र तुम ही हो। — - तुम प्रभु से परे 'मन स्व प्रकाशित नहीं है, क्योंकि स्वयं इसका प्रत्यक्षीकरण हो जाता है।' , - स्वयं मन को देखा जा सकता है। यह विषय बन सकता है। इसका प्रत्यक्षीकरण किया जा सकता है, इसलिए यह प्रत्यक्षीकरण करने वाला नहीं है। सामान्यत: हम सोचते हैं कि यह मन ही है जो फूल को देख रहा है। नहीं, तुम मन के पार जा सकते हो और तुम मन को देख सकते हो, ठीक उसी प्रकार से जैसे कि मन फूल को देख रहा है) तुम जितनी गहराई में उतरते हो उतना ही अधिक तुमको यह पता लगेगा कि देखने वाला स्वयं ही दिखाई पड़ने लगता है। यही कारण है कि कृष्णमूर्ति बार-बार कहे चले जाते हैं, 'देखने वाला ही देखा जाता है। प्रत्यक्षीकरण करने वाले का प्रत्यक्षीकरण किया जाता है।' जब तुम गहराई में उतरते हो तो पहले तुम वृक्षों को और गुलाब को और सितारों को देखते हो और तुम सोचते हो कि मन साक्षी हो रहा है। फिर अपनी आंखें बंद कर लो, अब मन में इनकी छवियों को देखो गुलाबों की, सितारों की, वृक्षों की अब शांता कौन है? शांता जरा गहराई में चला गया है । मन स्वय ही एक विषय बन चुका है। ये पांचों कोष, ये पांचों बीज, वे पांच स्थान हैं जहां शांता बार-बार गेय बन जाता है। जब तुम स्थूल शरीर, भोजन निर्मित शरीर, अन्नमय कोष से प्राण शरीर की ओर जाते हो, तो तुरंत ही प्राण शरीर से तुम देख लेते हो कि स्थूल शरीर को एक विषय की भांति देखा जा सकता है। यह प्राण शरीर के बाहर है, ठीक उसी तरह जैसे कि मकान तुम्हारे बाहर है, जब तुम प्राण शरीर में खड़े होते तो तुम्हारा अपना शरीर ठीक तुम्हारे चारों ओर की दीवार की भांति होता है। पुन: तुम प्राण शरीर से मनोमय
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy