________________ एक ढंग से बर्कले का दर्शनशास्त्र बहुत तर्कयुक्त है। उसका भरोसा मन में है और वह पदार्थ में विश्वास नहीं करता है। वह कहता है कि पदार्थ का अस्तित्व उसी प्रकार से है जैसा कि तुम्हारे स्वप्नों में होता है। तुम अपने स्वप्न में एक महल देखते हो, वहां यह उतना ही असली होता है जैसी कि कोई भी अन्य वस्तु जो तुमने देख रखी है। फिर सुबह होने पर जब तुम अपनी आंखें खोलते हो तो यह चला जाता है। किंतु जब तुम पुन: स्वप्न देखते हो तो पुन: यह वहां होता है। वह एक पूर्ण मायावादी, भ्रम में पूरा विश्वास करने वाला है, कि यह संसार भ्रम है। लेकिन पतंजलि बहुत वैज्ञानिक ढंग के व्यक्ति हैं। वे कहते हैं कि किसी वस्तु का अस्तित्व में होना तुम्हारी व्याख्या नहीं है, यद्यपि तुम उस वस्तु के बारे में जो कुछ भी सोचते हो वह तुम्हारी व्याख्या है। वस्तु का अपने आप में ही अस्तित्व है। जब बगीचे में कोई भी नहीं आता है-बढ़ई, लकड़हारा, चित्रकार, कवि, दर्शनशास्त्री; कोई भी बगीचे में नहीं आता है फिर भी पुष्प खिलते हैं, किंतु बिना किसी व्याख्या के। कोई कहता नहीं कि वे सुंदर हैं-इसलिए वे सुंदर नहीं हैं, वे कुरूप नहीं हैं। कोई नहीं कहता कि वे लाल हैं या सफेद-इसलिए लाल या सफेद नहीं हैं, किंतु फिर भी वे हैं। वस्तुओं का अस्तित्व उन्हीं में है, किंतु हम वस्तुओं को यर्थाथत: केवल तभी जान सकते हैं जब हमने अपने मनों को गिरा दिया हो। अन्यथा हमारे मन छल करते चले जाते हैं। हम उन वस्तुओं को देखते रहते हैं जिन्हें हम चाहते हैं। हम केवल वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं। यह यहां प्रतिदिन हुआ करता है। मैं तुमसे बोलता हूं तुम वही सुनते हो जो तुम सुनना चाहते हो। तुम उसे चुन लेते हो जो तुम्हारी सहायता करता है। इससे तुम्हारा अपना मन सबल हो जाता है। यदि मैं कुछ ऐसा कहता हूं जो तुम्हारे विरुद्ध जाता है, तो इस बात की पूरी संभावना है कि तुम उसको नहीं सुनोगे। या यदि तुम इसको सुन भी लो तो तुम इसकी इस ढंग से व्याख्या कर लोगे कि यह तुम्हारे मन में कोई बेचैनी उत्पन्न न करे, कि यह आत्मसात हो जाए, कि तुम इसको अपने मन का एक हिस्सा बगलो, जो कुछ भी तुम सुनते हो उसे तुम्हारी व्याख्या बन जाना पड़ता है, क्योंकि तुम मन के माध्यम से सुनते हो। पतंजलि कहते हैं. सम्यक श्रवण का अभिप्राय है मन के बिना सुना जाना; सम्यक दर्शन का अभिप्राय है मन के बिना देखा जाना-बस तुम सजग हो। 'वस्तु का ज्ञान या अज्ञान इस पर निर्भर होता है कि मन उसके रंग में रंगा है या नहीं।' अब एक और बात, जब तुम किसी वस्तु को देखते हो तो तुम्हारा मन उस वस्तु को रंग देता है और वह वस्तु तुम्हारे मन को रंग देती है। इसी प्रकार से वस्तुएं शांत या अशांत होती हैं। जब तुम एक फूल पर दृष्टिपात करते हो, तो तुम कहते हो, सुंदर। तुमने फूल पर कुछ आरोपित कर दिया है। फूल भी अपने आप को तुम्हारे मन में प्रक्षेपित कर रहा है, उसका रंग उसका रूप। तुम्हारा मन फूल के रंग और रूप के साथ लय में आ जाता है; तुम्हारा मन फूल के द्वारा रंग दिया जाता है। किसी वस्तु