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________________ चर्चा की जाती है। यह बस एक ऊर्जा है- इसको इच्छारहितता कहो या इसको मौलिक मन कहो-ये दो चीजें नहीं हैं। यह एक साथ ही घटित होता है, मैं जानता हूं। जब तक कि मौलिक मन उपलब्ध न हो तुम पूर्णत: इच्छा-शून्य नहीं हो सकते, लेकिन तुम निन्यानबे दशमलव नौ प्रतिशत इच्छा शून्य हो सकते हो, और यही है उपाय। तुम अपनी इच्छाओं को समझना आरंभ कर देते हो। समझ के माध्यम से उनमें से कई बस विलीन हो जाती हैं, क्योंकि वे मात्र मूर्खता हैं। वे तुम्हें और-और हताशा के अतिरिक्त कहीं और नहीं ले गई थीं। उन्होंने केवल नरक के लिए द्वार खोले थे और कुछ नहीं किया था-अधिक चिंता, अधिक पीड़ा, अधिक संताप, और परेशानी। बस उनको देख लो; वे खो जाएंगी। पहले वे इच्छाएं जो तुमको हताशा में ले गई थीं, मिट जाएंगी, और तब तुम्हें अधिक सूक्ष्मग्राही परिप्रेक्ष्य मिल जाएगा। फिर तुम उन इच्छाओं को देखोगे जिन पर तुम अब तक विचार कर रहे थे, वे इच्छाएं जो तुमको सुख में ले गई थीं, जो तुमको सुख में नहीं भी ले गईं-क्योंकि जो कुछ भी सुखद प्रतीत होता है अंततः अंत में खट्टा और कडुवा बन जाता है। इसलिए सुख इच्छा की एक तरकीब मालूम पड़ती है : तुमको दुख में डाल देने की एक तरकीब। पहले पीडादायक गिर जाएंगी, और फिर तुम यह देख पाने में समर्थ हो जाओगे कि सुख भ्रामक, नकली, एक स्वप्न है, समझ के माध्यम से निन्यानबे दशमलव नौ प्रतिशत इच्छाएं विलीन हो जाएंगी, और फिर चरम घटता है। यह उसी क्षण घट जाता है : सौ प्रतिशत इच्छाएं विलीन होती हैं और मौलिक मन एक क्षण में ही प्रकट हो जाता है, ऐसा कारण और प्रभाव से नहीं घटता, बल्कि तत्क्षण,- साथ-साथ घट जाता है। इसके लिए कार्ल गुस्ताव जुग का शब्द प्रयोग करना बेहतर रहेगा–समक्रमिकता। वे कारण और प्रभाव की भांति संबंधित नहीं हैं। वे एक साथ एक ही क्षण में प्रकट होते हैं, और ऐसा भी इस ढंग से इसलिए कहना पडता है क्योंकि मुझको भाषा का उपयोग करना पड़ता है। अन्यथा वे एक ही हैं, एक सिक्के के दो पहल हैं। यदि तम समझ के, ध्यान के माध्यम से देखो तो तम इसे मौलिक : कहोगे। यदि तुम अपनी इच्छाओं, वासनाओं के माध्यम से देखो तो तुम इसे इच्छा शून्यता कहोगे। जब तुम इसको इच्छा शन्यता कहते हो, तो यह बस यही प्रदर्शित करता है कि तुम इसकी तुलना इच्छा से करते रहे हो, जब तुम इसको मौलिक मन कहते हो, तो यह बस यही प्रदर्शित करता है कि तुम इसकी तुलना यांत्रिक मनों से करते रहे हो, लेकिन तुम, एक और उसी चीज की, बात कर रहे हो। चाहे तुम कहीं भी हो, तुम यांत्रिक मन में हो। तुम जो कुछ भी हो, तुम यांत्रिक मन में हो, बंदी हो। अपने लिए अफसोस मत करो। यह स्वाभाविक है। प्रत्येक बच्चे को कुछ न कुछ सीखना ही पड़ता है, इसी से मन निर्मित होता है। और प्रत्येक बच्चे को इस संसार में जीवित रहने के उपाय सीखने पड़ते हैं, इससे मन निर्मित होता है। अपने माता-पिता या अपने समाज के प्रति क्रोधित अनुभव मत करो, इससे कोई सहायता नहीं मिलने वाली है। प्रेम में उन्होंने तुम्हारी सहायता की है, यह स्वाभाविक था।
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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