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प्रश्न: - दो-तीन माह पूर्व प्रवचन के दौरान मैं खूब रोया करती थी। जब आप भले ही कोई हंसी की बात न कहे रहे हो। तब भी जब मैं आपके निकटमा अनुभव करती हूं उन क्षणों में मैं हंसना और हंसना चाहती हूं। ऐसा क्यों है?
लोकन क्यों? किसलिए? हंसो इसे एक प्रश्न और समस्या क्यों बनाती हो?
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यह कृष्ण राधा ने पूछा है। पहले वह पूछा करती थी मैं क्यों रो रही हूं?' अब किसी प्रकार से किसी चमत्कार से वह रो नहीं रही है, बल्कि हंस रही है; लेकिन समस्या बनी हुई है।
हमें समस्याओं से क्यों चिपकते हैं? भले ही तुम प्रसन्नता अनुभव करो, अचानक मन कहता है क्यों? जैसे कि प्रसन्नता भी कोई बीमारी है। व्याख्या की आवश्यकता पड़ती है, तार्किक व्याख्या की आवश्यकता होती है; वरन प्रसन्नता भी मूल्यवान न होगी ।
यह सतत जारी है। मैं देखता हूं लोग मेरे पास आते हैं, वे परेशान हैं, वे पूछते हैं, क्यों? मैं समझ सकता हूं जब तुम पीड़ा अनुभव कर रहे हो तो यह पूछना स्वाभाविक है, मैं समझ सकता हूं कि व्यक्ति पूछता है, क्यों? लेकिन मैं जानता हूं कि उनका 'क्यों' उनके संताप से गहरा है। शीघ्र ही वे प्रसन्नता भी अनुभव करने लगते हैं, और पुनः वे वहां हैं - बहुत परेशान, क्योंकि वे प्रसन्न हैं। अब 'क्यों पीड़ा है।
मैं तुमसे एक कहानी कहता हूं
एक मनोचिकित्सक के कार्यालय में एक व्यक्ति आता है और कहता है, डाक्टर साहब, मैं तो पागल हुआ जा रहा हूं मैं सोचता रहता हूं कि मैं जेब्रा हूं। हर बार जब मैं दर्पण में खुद को देखता हूं अपने पूरे शरीर को काली धारियों से भरा हुआ पाता हूं।
मनोचिकित्सक ने उसको शांत करने का प्रयास किया-शात हो जाएं, शांत हो जाएं- चिकित्सक कहता है, अब बस शांत हो जाएं, घर जाएं और ये गोलियां खा लें, रात्रि में अच्छी नींद सोए, और मैं आश्वस्त हूं कि काली धारियां पूरी तरह से मिट जाएंगी।
तो वह बेचारा घर चला जाता है और दो दिन बाद लौटता है। वह कहता है, डाक्टर साहब, मुझको बहुत फायदा हुआ है। क्या आपके पास सफेद धारियों के लिए भी कोई गोली है?
लेकिन समस्या जारी रहती है।"