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पागल होते हैं। पागल होने में कोई भी दूसरे पेशे के लोग मनोविश्लेषकों का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। ऐसा शायद इसीलिए होता है कि पागल व्यक्तियों के पास रहते, उनके ऊपर काम करते, धीरे धीरे उनका पागल होने का भय समाप्त हो जाता है, और धीरे धीरे एक दिन ऐसा आता है जब उनके बीच की दूरी समाप्त हो जाती है।
मैं एक घटना पढ़ रहा था:
एक आदमी डॉक्टर के पास अपनी जांच करवाने गया ।
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डॉक्टर ने उससे पूछा, 'क्या तुम्हारी आंखों के सामने धब्बे नजर आते हैं?'
'हां, डॉक्टर।'
'सिरदर्द रहता है?' डॉक्टर ने पूछा।
'हां, मरीज ने कहा ।
'पीठ में दर्द रहता है?'
'हां, डॉक्टर।'
'मेरे साथ भी ऐसा ही है, ' डॉक्टर ने बताया । ' मैं हैरान हूं कि आखिर यह क्या बला है!
डॉक्टर और मरीज दोनों एक ही नाव में सवार हैं। कोई भी परेशानी का कारण नहीं जानता है।
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पूरब में हमने एक विशेष कारण से कभी मनोविश्लेषकों का व्यवसाय खड़ा नहीं किया।' हमने पूरी तरह एक अलग ढंग के मनुष्य का निर्माण किया योगी मनोचिकित्सक नहीं। योगी गुणात्मक रूप से दूसरे लोगों से अलग होता है। मनोविश्लेषक गुणात्मक रूप से अन्य लोगों अलग नहीं होता है। वह तो उसी नाव में सवार होता है जिसमें दूसरे लोग सवार है, वह तुम्हारे जैसा ही होता है वह किसी भी ढंग से अलग नहीं होता है। भेद केवल इतना ही होता है, जितना जानते हो उससे वह थोड़ा अधिक तुम्हारे पागलपन को और अपने पागलपन को जानता है। पागलपन, और मनोविक्षिप्तताओं के बारे में उनकी थोड़ी अधिक जानकारी होती है। बौद्धिक रूप से मनोविश्लेषक मनुष्य के मन और मनुष्य जाति की सामान्य अवस्था के बारे में अधिक जानता है लेकिन वह कुछ अलग नहीं है। लेकिन योगी गुणात्मक रूप से एकदम अलग होता है। जिस पागलपन में एक सामान्य व्यक्ति जीता है, वह उस पागलपन से बाहर आ गया है।
और जिस ढंग से आज पश्चिम में विक्षिप्तता के लिए कारण खोजे जा रहे हैं, मानवता की सहायता करने के तरीके और साधन खोजे जा रहे हैं, वे सभी प्रारंभ से ही गलत मालूम होते हैं वे कारणों को अभी भी बाहर खोज रहे हैं- और जबकि कारण भीतर हैं। कारण कहीं बाहर, संबंधों में, बाह्य संसार में