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जब कोई सदगुरु किसी शिष्य के शरीर में प्रवेश करता है, तो वह एक बहुत ही स्वर्ण अवसर को, एक बड़ी संभावना को छोड़ जाता है। अगर शिष्य उसका सदुपयोग कर सके तो वह बहुत ही आसानी से, सीधे -सरल ढंग से, बिना किसी प्रयास के बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकता है।
ऐसी कुछ विधियां हैं ' उन विधियों को सिद्धों की विधियां कहा जाता है। वे अपने शिष्यों को किसी विशेष विधि पर कार्य नहीं करने देते हैं। सिदध शिष्य को केवल अपने निकट बैठने और प्रतीक्षा करने के लिए कहते हैं। उनका भरोसा सत्संग में होता है।
और यह बहुत ही अदभुत और शक्तिशाली विधि है, लेकिन सत्संग के लिए श्रद्धा और समर्पण की आवश्यकता होती है। अगर थोड़ा सा भी, रंच मात्र भी संशय भीतर है तो सत्संग नहीं हो सकता। थोडी सी भी बाधा या प्रतिरोध हुआ तो सत्संग फलित नहीं हो सकता। उसके लिए व्यक्ति को पूरी तरह से खुला हा और ग्राहक होना चाहिए। व्यक्ति को चंद्र-भाव, स्त्रैण - भाव में होना चाहिए, केवल तभी सदगुरु अपना कार्य कर सकता है।
'बंधन के कारण का शिथिल पड़ना और संवेदन-ऊर्जा भरी प्रवाहिनियों को जानना मन को पर - शरीर में प्रवेश करने देता है।'
इसके लिए दो बातें आवश्यक हैं। पहली तो बात है, बंधन का शिथिल होना; और दूसरी बात है, जागरूकता, होश और बोध कि शरीर को कहा से छोड़ना है और फिर कहां से कैसे वापस स्वयं के शरीर में प्रवेश करना है और दूसरे के शरीर में कैसे प्रविष्ट होना है। क्योंकि अगर यह मालूम न हो कि कहां से तुम्हें अपने शरीर से निकलना है, तो फिर तुम वापस शरीर में प्रवेश नहीं कर पाओगे। इसलिए केवल बंधनों का शिथिल होना पर्याप्त नहीं है; अराने शरीर के आंतरिक जगत के प्रति सजग और जागरूक होना भी आवश्यक है।
साधारणतया तो हम केवल बाह्य शरीर को ही, चमड़ी को ही जानते हैं। इसी कारण लोग चमड़ी पर पाऊडर लगाते हैं, सुगंध लगाते हैं, इत्र –फुलेल लगाते हैं। ही, वही तो है उनका पूरा शरीर। वे शरीर के भीतर छिपी हुई प्रक्रिया को जानते ही नहीं हैं। उसके प्रति जागरूक ही नहीं हैं। उन्हें केवल चमड़ी का, ऊपर की सतह का ही पता है, जो कि बाह्य आवरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह तो ऐसे ही है जैसे तुम ताजमहल देखने जाओ और तुम ताजमहल के बाहर ही बाहर घूमते रहो और बाहर की दीवारों को देखकर ही वापस लौट आओ। य । तुम स्वयं को दर्पण में देखो, और दर्पण तो मात्र चमड़ी को, बाहरी ढांचे को ही प्रतिबिंबित करता है; और तुम उसी बाह्य आवरण के साथ ही तादात्म्य स्थापित कर लेते हो। और सोचने लगते हो, 'मैं यही हूं।' लेकिन तुम वह नहीं हो। तुम उससे अधिक हो, उससे अधिक विराट हो –लेकिन तुम भीतर कभी देखते ही नहीं हो।
पहले शरीर के साथ जो तादात्म्य बना हुआ है उसे तोड़ दो, फिर अपनी आंखें बंद कर लो और शरीर को भीतर से अनुभव करने का प्रयास करो। शरीर को भीतर से स्पर्श करने का प्रयास करो, और देखो