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दूसरे के शरीर में प्रवेश कर सको, तो यह बिलकुल स्पष्ट दिखाई पड़ जाता है कि शरीर तो मात्र एक घर है, जहां कि हम रहते हैं। अगर तुम्हारा अपना मकान हो और तुम हमेशा से उसी में रहते आए हो, तो धीरे – धीरे उस मकान के साथ तादात्म्य स्थापित हो जाता है। तुम सोचने लगते हो कि मैं मकान हूं। लेकिन अगर तुम अपने किसी मित्र के घर चले जाओ, तो तुम्हें इस बात का अहसास होगा कि तुम मकान नहीं हो, तुम्हारा घर तो पीछे छूट गया है, तुम अब दूसरे के घर में हो। तुब दृष्टि एकदम साफ हो जाती है।
और यह जो तादात्म्य है, अगर यह दिखाई पड़ने लगे, तो धीरे - धीरे उसमें शिथिलता आने लगती है, फिर धीरे - धीरे तादात्म्य कम होने लगता है। तो तादात्म्य का शिथिल होना या कम होना भी साधक के लिए बहुत सहयोगी है। अगर व्यक्ति अपने बंधनों को शिथिल कर दे, अपने बंधनों को खोल दे, तो भी वह दूसरों के लिए बहुत गहरे में सहयोगी हो सकता है। शक्तिपात की विधियों में से एक विधि यह भी है।
जब कभी कोई सदगुरु अपने किसी शिष्य की मदद करना चाहता है, उसके ऊर्जा के प्रवाह को, ऊर्जा के मार्ग को निर्बाध करना चाहता है -अगर शिष्य की ऊर्जा का प्रवाह अवरुद्ध हो गया है तो सदगुरु उस पर उतर आता है, उस पर छा जाता है। और सदगुरु की विराट ऊर्जा, जो शुद्ध और असीम होती है, शिष्य की ऊर्जा में प्रवाहित होने लगती है। और शिष्य की ऊर्जा जो अवरुद्ध हो गई थी, वह फिर से प्रवाहित होने लगती है। तब शिष्य की ऊर्जा अपने से गतिमान होने लगती है। यही है शक्तिपीत की. संपूर्ण कला। अगर शिष्य सच में सद्गुरु के प्रति समर्पित हो, तो सदगुरु शिष्य पर छा जाता है, उसे अपनी ऊर्जा से चारों ओर से घेर लेता है, उस पर आविष्ट हो जाता है।
और अगर एक बार शिष्य में सदगुरु की ऊर्जा प्रवाहित हो जाती है, सदगुरु के 'प्राण' शिष्य के आसपास छा जाते हैं, शिष्य में उतर आते हैं, तो फिर शिष्य की यात्रा बहुत आसान हो जाती है। जो काम वह वर्षों में नहीं कर सकता, जिस काम को करने में उसे कई वर्ष लग जाएंगे, क्योंकि वह इस पर काम करता रहेगा, करता रहेगा... क्योंकि काम कठिन है, मार्ग में बहत से अवरोध हैं, बहत से बाधाएं हैं; वे कई –कई जन्मों से एकत्रित होती जा रही हैं; और ऊर्जा बहुत थोड़ी है, बहुत ही अल्प है, कहना चाहिए, ऊर्जा की थोड़ी सी बूंदें ही हैं। वे ऊर्जा की बूंदें इस विराट रेगिस्तान में फिर –फिर खो जाती हैं। वह ऊर्जा बार-बार अवरुद्ध हो जाती है। लेकिन अगर सदगुरु शिष्य में निर्झर की तरह प्रवेश कर जाए, तो बहुत सी चीजें अपने से ही बह जाती हैं। और जब सदगुरु शिष्य से बाहर आ जाता है, तो शिष्य एकदम बदल जाता है –वह अधिक स्वच्छ, अधिक युवा, अधिक ऊर्जा से भरा हुआ हो जाता है.. और उसके सभी ऊर्जा के मार्ग खुल जाते हैं। फिर शिष्य का थोड़ा सा प्रयास, और वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकता है।