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एक कदम दूसरे तक ले जाता है। और एक बार कोई गलत कदम उठ जाए, तो पूरा जीवन गलत की एक श्रृंखला बनता चला जाता है और फिर वह अनेकानेक रूपों में प्रतिबिंबित होने लगता है और अगर हम पहला चरण, प्रारंभिक बात ठीक नहीं कर लेते हैं, तो हम दुनिया भर की बातें ठीक करते रहे, हम ठीक न कर पाएंगे।
गुर्जिएफ अपने शिष्यों से कहा करता था सबसे पहली बात जो समझ लेने की है वह यह है कि तुम्हारा अपने विचारों के साथ, अपने कृत्यों के साथ तादात्म्य नहीं है और एक बात निरंतर स्मरण रखनी है कि तुम केवल साक्षी हो, चैतन्य हो न तो कृत्य हो और न ही विचार हो।'
अगर यह स्मरण हमारे भीतर सघनीभूत हो जाए, तो विवेक की उपलब्धि हो जाती है फिर उसके पीछे पीछे ही वैराग्य आ जाता है। अगर विवेक की उपलब्धि नहीं होती है, तो फिर संसार ही बना रहता है। अगर हमारा शरीर और मन के साथ तादात्म्य बना रहता है, तो हम बाह्य संसार में ही रहते हैं और हमें ईडन के बगीचे से बाहर निकाल दिया जाता है। अगर इस भेद को देख सकों और बात का निरंतर स्मरण रहे कि हम शरीर में हैं और शरीर एक निवास स्थान है, कि हम मालिक हैं और मन तो मात्र एक बाओ कंप्यूटर है, कि हम मालिक हैं और मन तो एक सेवक ही है, तब भीतर की ओर मुड़ना संभव हो सकता है। तब बाहरी संसार की यात्रा समाप्त हो जाती है, क्योंकि संसार यात्रा की प्रथम सीढ़ी नहीं है जब हमारा संसार के साथ तादात्म्य टूटने लगता है, तो फिर हम अपने भीतर उतरने लगते हैं और यही है वैराग्य ।
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और जब भीतर और भीतर उतरते ही चले जाते हैं तो एक ऐसा अंतिम बिंदु आता है जिसके पार जाना संभव नहीं होता, यही है समम्म बोनम, यही कैवल्य है तब हम एकांत को उपलब्ध हो जाते हैं। अब किसी चीज की जरूरत नहीं रह जाती है। स्वयं को किसी न किसी चीज से भरने के अथक और अनवरत प्रयास की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है। अब हमारी अपनी स्वयं की शून्य के साथ तालमेल बैठ जाता है और शून्यता के इस तालमेल के ही साथ शून्यता पूर्ण हो जाती है, हम असीम हो जाते हैं। और इसके साथ ही एक गहन परितृप्ति आ जाती है और स्वयं के अस्तित्व की सार्थकता फलित हो जाती है।
आरंभ में इस पुरुष का अस्तित्व होता है, अंत में इस पुरुष का अस्तित्व होता है और इन दोनों के मध्य में ही संसार का विराट स्वप्न होता है।
पहला सूत्र :
'पुरुष, सदचेतना और सत्व, सदबुद्धि के बीच अंतर कर पाने की अयोग्यता के परिणाम स्वरूप अनुभव के भोग का उदभव होता है, यद्यपि ये तत्व नितात भिन्न हैं।
'स्वार्थ पर संयम संपन्न करने से अन्य ज्ञान से भिन्न पुरुष ज्ञान उपलब्ध होता है।'