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शिक्षक कक्षा से बाहर चला जाए और कक्षा में बच्चों का शोरगुल शुरू हो जाता है, बच्चे उठकर इधर-उधर घूमने लगते हैं, और जैसे ही शिक्षक वापस आता है सारे बच्चे अपनी अपनी जगह बैठ जाते हैं, और लिखना पढ़ना शुरू कर देते हैं, अपना कार्य करने लगते हैं और कक्षा में एकदम शा छा जाती है -- शिक्षक की उपस्थिति मात्र से ही।
अब वैज्ञानिकों के पास इसके समानांतर कुछ है इसे वे केटेलेटिक एजेंट, उत्पेरक तत्व की उपस्थिति कहते हैं। कुछ वैज्ञानिक घटनाएं ऐसी होती हैं जिनमें एक विशेष तत्व की उपस्थिति मात्र की आवश्यकता होती है। वह कोई कार्य नहीं करता, उसका कोई कार्य नहीं होता, लेकिन उसकी उपस्थिति मात्र से घटना को घटने में मदद मिलती है। • अगर वह उपस्थित न हो, तो वह घटना नहीं घटेगी। अगर वह उपस्थित हो वह स्वयं में प्रतिष्ठित रहता है, वह बाहर नहीं जाता उसकी
उपस्थिति ही उत्प्रेरणा का कारण बन जाती है। उसकी उपस्थिति ही कहीं पर, किसी में क्रियाशीलता का सृजन कर देती है।
पतंजलि कहते हैं कि व्यक्ति का अंतर्तम अस्तित्व सक्रिय नहीं है, वह निष्किय है। योग में अंतर्तम अस्तित्व को पुरुष कहते हैं। व्यक्ति के भीतर वह केटेलेटिक एजेंट शुद्ध चैतन्य के रूप में है। बस, कुछ न करते हुए वह शुद्ध चैतन्य उपस्थित है - वह सभी कुछ देख रहा है, लेकिन कर कुछ भी नहीं रहा है, हर चीज पर ध्यान दे रहा है, फिर भी किसी से संबंध नहीं बना रहा है। पुरुष की उपस्थिति मात्र से प्रकृति मन, शरीर सभी कुछ क्रियाशील हो उठते हैं।
लेकिन हम शरीर के साथ, मन के साथ तादात्म्य बना लेते हैं और साक्षी न रहकर कर्ता बन जाते हैं। यही तो मनुष्य का सारा रोग है। विवेक औषधि है – कि घर कैसे लौटा जाए, कि कर्ता होने का झूठा विचार कैसे गिराया जाए, और साक्षी होने की शुद्धता को कैसे उपलब्ध हुआ जाए। इसी की विधि विवेक कहलाती है।
एक बार अगर हम यह जान लें कि हम कर्ता नहीं हैं हम साक्षी हैं तो उसके साथ ही दूसरा चरण घटित हो जाता है त्याग, संन्यास, वैराग्य का दूसरा चरण घटित हो जाता है जो कुछ भी हम पहले कर रहे थे, वह अब नहीं कर सकते। पहले बहुत सी चीजों के साथ हमारा अत्यधिक तादात्म्य था, क्योंकि पहले हम सोचते थे कि, हम शरीर हैं, मन हैं। अब हम जान लेते हैं कि हम न तो शरीर हैं और न ही मन हैं। पहले हम न जाने कितने ही व्यर्थ की बातों के पीछे भाग रहे थे और उनके लिए पागल हुए जा रहे थे – वे सब सहज ही गिर जाते हैं।
इनका गिर जाना ही वैराग्य है, संन्यास है, त्याग है। जब हमारी समझ से, हमारे विवेक से, रूपांतरण घटित होता है वही वैराग्य है। और जब वैराग्य भी पूर्ण हो जाता है तो व्यक्ति कैवल्य को उपलब्ध हो जाता है तब पहली बार हम जानते हैं कि हम कौन हैं।