________________
एक महान फारसी रहस्यदर्शी, रूमी अपनी एक कविता में कहते हैं कि एक दिन पैगंबर मोजेज ने रास्ते में एक चरवाहे को रो -रो कर प्रार्थना करते हुए देखा, 'हे परमात्मा, आप कहां हो? मैं आपकी सेवा करने को तरस रहा है। मैं आपके बालों में कंघी करूंगा, आपके कपड़े धोऊंगा, और अगर आपके सिर में जूएं हईं तो वह भी निकाल दूंगा -आपके लिए दूध ले आया करूंगा और आपके नन्हे -नन्हे हाथ चूमा करूंगा और आपके छोटे -छोटे पैरों की मालिश कर दिया करूंगा और रात्रि को आपके सोने से पहले आपके छोटे से कमरे को साफ कर दिया करूंगा......।'
पैगंबर मोजेज उस चरवाहे की इन बातों को सुनकर बहुत नाराज हुए और जाकर उस चरवाहे से कठोर शब्दों में बोले, 'अरे मूढ़, नासमझ! तू किससे ऐसी मूढ़तापूर्ण बातें कर रहा है? यह क्या तू परमात्मा के प्रति निंदापूर्ण ढंग से बोल रहा है? परमात्मा से इस प्रकार की बातें करने से कहीं अच्छा होता तू गंगा हो जाता। तेरा इस तरह से परमात्मा से बोलना पाप पूर्ण है, अपराध है। अरे चरवाहे! अपने मुंह में कपड़ा ठूस ले। और खबरदार! अब एक भी शब्द अनादर का परमात्मा के प्रति मत बोलना, परमात्मा तुझे एक क्षण में भस्म कर सकता है, एक क्षण में राख कर सकता है।'
और फिर ऐसा कहा जाता है कि उस चरवाहे ने दुख और पीड़ा से भरकर अपने कपड़े फाड़ डाले, एक आह भरी और तेजी से घने जंगल में चला गया।
तब रात को मोजेज के सम्मुख रहस्योदघाटन हुआ। मोजेज से परमात्मा ने कहा, 'मोजेज, तुम्हें तो जगत में लोगों को मुझसे जोड़ने के लिए भेजा गया था, तोड़ने के लिए नहीं। लेकिन तुमने तो मेरे पीछे चलने वाले एक प्यारे से, मेरे एक भक्त से मुझे अलग कर दिया। वह चरवाहा मुझे प्यारा है।
न भलना नहीं, पजा करने का चाहे कोई सा भी ढंग हो, वह मेरा ही है। पजा की अनेक विधियां हैं, धर्म भी अनेक हैं, लेकिन फिर भी सभी धर्म, सभी विधियां मेरे ही हैं। हर एक आदमी का अपना मार्ग है, अपना ढंग है, अपना रूप है, अपनी बोली है। मोजेज, मैं भाषा और शब्दों को नहीं देखता. मैं तो व्यक्ति की आत्मा और उसके आंतरिक भाव को देखता है।'
बुद्धि हमेशा अपने ही ढंग से सोचती चली जाती है। अंतर्बोध इस बात के प्रति अबोध व अज्ञानी ही बना रहता है। और अंतर्बोध बुद्धि में विश्वास नहीं कर सकता, वह उसे बहुत सतही मालूम होती है - जिसमें जरा भी गहराई नहीं है।
हमको स्वयं के भीतर की बदधि और अंतर्बोध को एक करना है। जब पतंजलि कहते हैं उन्हें मिलाना है -प्रातिभादवा सर्वम् –तो उनका यही मतलब है। बुदधि का और अंतर्बोध का मिलन इतने गहरे से हो जाए कि दोनों आपस में एक दूसरे में समाहित हो जाएं, तब कहीं जाकर प्रतिभा का आविर्भाव होता है -जहां तर्क और प्रार्थना का मिलन हो जाता है, जहां कार्य और पूजा का मिलन हो जाता है, जहां विज्ञान कविता के विरोध में नहीं होता और कविता विज्ञान के विरोध में नहीं होती।