________________ है, लेकिन हम वहा पर होते ही नहीं हैं देखने को। और जब तक हम लौटकर आते हैं, वह द्वार बंद हो चुका होता है। हर क्षण, हर पल हमें परमात्मा को देखने के लाखों अवसर उपलब्ध होते हैं, लेकिन तुम स्वयं में मौजूद ही नहीं होते हो। परमात्मा आता है दवार खटखटाता है, लेकिन हम वहां होते ही नही हैं। हम कभी मिलते ही नहीं हैं। हमारा मन न जाने कहौ -कहां भटकता रहता है। इधर-उधर भटकता रहता है। यह मन का भटकना, यह मन का घूमना कैसे बंद हो जाए धारणा का अर्थ यही है। संयम की ओर बढ़ने के पूर्व धारणा पहला चरण है। दूसरा चरण है ध्यान। धारणा में, एकाग्रता में हम अपने मन को एक केंद्र में ले आते हैं, एक विषय पर केंद्रित कर लेते हैं। धारणा में जिस विषय पर मन केंद्रित हस्तो है, वह विषय महत्वपूर्ण होता है। जिस विषय पर मन को केंद्रित करना है, उस विषय को बार -बार अपनी चेतना में उतारना होता है उसमें विषय की धारा खोनी नहीं चाहिए। हगरणा में विषय महत्वपूर्ण होता है। दूसरा चरण है ध्यान, मेडीटेशन। ध्यान में विषय महत्वपूर्ण नहीं रह जाता, विषय गौण हो जाता है। ध्यान में चेतना का प्रवाह महत्वपूर्ण हो जाता है -चेतना जो विषय पर उडेली जा रही है। फिर चाहे उसमें कोई भी विषय काम देगा, लेकिन चेतना को उस पर सतत रूप से प्रवाहित होना चाहिए, उसमें जरा भी अंतराल नहीं आना चाहिए। क्या कभी तुमने गौर किया है? अगर एक पात्र से दूसरे पात्र में पानी डालो, तो उसमें थोड़े - थोड़े गैप्स, अंतराल आते हैं। अगर एक पात्र से दूसरे पात्र में तेल को डालो, तो क्समें बिलकुल प्स या अंतराल नहीं आते। तेल में एक सातत्य होता है, एक प्रवाह होता है, पानी में सातत्य नहीं होता है। ध्यान का, मेडिटेशन का अर्थ है कि चेतना का एकाग्रता के विषय पर सतत रूप से गिरना। नहीं तो चेतना हमेशा कंपायमान रहती है, टिमटिमाते दीए की भांति होती है, उसमें कोई प्रकाश नहीं होता। और कई बार चेतना अपनी पूरी प्रगाढ़ता के साथ होती है, लेकिन फिर लुप्त हो जाती है, और इस तरह से चेतना की लौ कंपायमान रहती है। लेकिन ध्यान में चेतना की धारा निरंतर प्रवाहमान बनी रहे, इस पर ध्यान रखना होता है। जब चेतना की धारा निरंतर प्रवाहमान रहती है, तो व्यक्ति अत्यधिक शक्तिशाली हो जाता है। उस समय पहली बार अनुभव होता है कि जीवन क्या है। पहली बार तुम्हारा जीवन छिद्ररहित होता है। पहली बार व्यक्ति अपने साथ, अपने में पूर्ण होता है। और स्वयं के साथ होने का अर्थ है, चेतना के साथ एक होना। अगर चेतना पानी की बूंदों की भांति अलग - थलग है और उसमें कोई सातत्य नहीं है, तो फिर व्यक्ति सच में चेतना संपन्न नहीं हो सकता। तब तो वे गैप्स, वे अंतराल जीवन में अशांति बन जाएंगे। तब जीवन एकदम बुझा -बुझा सा नीरस और निष्प्राण हो जाएगा; उसमें किसी