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ओर एक नजर घुमाई और बिना किसी को संबोधित करते हुए वह ऐसे ही बोला, ' श्रीमान, सभी कुछ ठीक है केवल एक बात को छोड़कर। आपने प्रतिमाएं तो बहुत ही सुंदर बनायी हैं, लेकिन आप एक बात चूक गए हैं। एक गलती उनमें रह गयी है।
वह मूर्तिकार यह भूल ही गया कि वह स्वयं को छिपाए हुए है। वह फटाक से कूदकर सामने आ गया, और बोला- 'कौन सी गलती?'
और मृत्यु का देवता हंस पड़ा और उसने कहा, तुम पकड़ में आ गए हो यही है एकमात्र गलती तुम स्वयं को नहीं भुला सकते। अब आओ, मेरे साथ चलो।'
मृत्यु अहंकार की ही होती है अगर अहंकार बना रहता है, तो मृत्यु भी बनी रहती है जिस क्षण अहंकार विलीन हो जाता है, मृत्यु भी विलीन हो जाती है। स्मरण रहे, तुम नहीं मरोगे, लेकिन अगर तुम सोचते हो कि तुम हो, तो तुम्हारी मृत्यु भी होगी। अगर तुम सोचते हो कि तुम्हारा अपना अलग अस्तित्व है, । अलग होना है, तो तुम्हारी मृत्यु होगी ही अहंकार के इस झूठे रूप की मृत्यु होगी ही, लेकिन अगर तुमने स्वयं को अभौतिक, र अहंकार के रूप में जाना, तो फिर कहीं कोई मृत्यु नहीं हैं फिर तुम अमृत को उपलब्ध हो जाते हो। तुम अमृत को उपलब्ध हो ही, अब तुम्हें इस सत्य का बोध हो जाता है।
वह मूर्तिकार पकड़ में आ गया, क्योंकि वह अपने मूर्तिकार होने के अहंकार को छोड़ न सका ।
बुद्ध अपने धम्मपद में कहते हैं अगर तुम मृत्यु को देख सको, तो मृत्यु तुम्हें नहीं देख सकेगी। अगर मृत्यु आने के पूर्व तुम मर जाओ, तो फिर कोई मृत्यु नहीं है, और फिर मूर्तियां बनाने की कोई जरूरत नहीं है। मूर्तियां बनाने से कुछ मदद मिलने नहीं वाली है। अपने स्वयं के भीतर की मूर्ति को तोड़ दो, तो फिर ग्यारह और प्रतिमाएं बनाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। हमको अहंकार की प्रतिमा को ही तोड़ देना है। फिर और अधिक प्रतिमाएं बनाने की, और अधिक प्रतिछवियां बनाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है। धर्म एक अर्थों में विध्वंसात्मक है। एक तरह से धर्म नकारात्मक है। धर्म तुम्हें मिटाता है वह तुम्हे संपूर्ण और आत्यंतिक रूप से मिटा देता है।
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अगर तुम किसी परिपूर्णता को पाने की किन्हीं धारणाओं को लेकर मेरे पास आते हो, तो और मैं यहां तुमको और तुम्हारी धारणाओं को पूरी तरह मिटा देने के लिए हूँ। तुम्हारे पास अपने कुछ मत हैं, विचार हैं, धारणाएं हैं मेरे अपने ढंग हैं तुम परिपूर्ण होना चाहते हो - अपने अहंकार को परिपूरित और पुष्ट करना चाहते हो और मैं चाहूंगा कि तुम अपने अहंकार को गिरा दो, विलीन कर दो, तिरोहित कर दो, क्योंकि उसके बाद ही परिपूर्णता आती है अहंकार केवल रिक्तता और खालीपन को ही जानता है, इसीलिए वह सदा अतृप्त रहता है। अहंकार अपने स्वभाव के कारण, अपने मूलभूत स्वभाव के कारण ही वह परिपूर्णता को उपलब्ध नहीं हो पाता है। जब अहंकार नहीं होता है, तो तुम भी नहीं होते हो, और उसके साथ ही परितृप्ति उतर आती है। फिर चाहे परमात्मा कहो या वह नामदे
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