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अगर परमात्मा भयभीत या डरा हुआ होता तो यह संसार बहुत पहले ही समाप्त हो गया होता या फिर यह संसार बना ही न होता। अगर वह भयभीत होता कि अगर मैं मनुष्य की रचना करूं और वह कुछ गलत कर बैठे, अगर वह भटक गया वस्तुत: पहला आदमी अदम भटक गया था। आदमी को वैसा ही होना पड़ता है। परमात्मा ने पहला आदमी बनाया, और उसने विद्रोह कर दिया और परमात्मा की आज्ञा का उल्लंघन किया, और उसने ईडन के बगीचे की सभी सुख सुविधाओं को छोड़ने का जोखिम उठाया। उसने खतरे से भरा मार्ग चुना। जरा अदम के बारे में तो सोचो - कितने खतरे में जीया होगा वह। और परमात्मा भी अदम को बनाकर रुक नहीं गया। अन्यथा वह अदम को बनाकर ही रुक जाता। इसकी कोई आवश्यकता न थी। उसने पहले आदमी की रचना की और वह पहला आदमी ही भटक गया- तो फिर उसके बाद परमात्मा को आदमी की रचना करने की क्या आवश्यकता थी। लेकिन उसके बाद फिर भी परमात्मा सृष्टि की रचना करता ही चला जा रहा है।
सच तो यह है, ऐसा लगता है कि परमात्मा ने ही इन सारी परिस्थतियों का निर्माण किया है। परमात्मा ने अदम से कहा, 'इस वृक्ष के फल को मत चखना।' और परमात्मा के मना करने के कारण ही अदम के अंदर एक आकर्षण पैदा कर दिया ईसाई जब कहते हैं कि शैतान ने अदम को प्रलोभित किया - एकदम गलत है यह बात परमात्मा ने यह कहकर कि 'इस ज्ञान के वृक्ष के फल को मत चखना, 'अदम को प्रलोभित किया। इससे अधिक और कौन से प्रलोभन की तुम कल्पना कर सकते हो? किसी भी बच्चे के साथ जरा इसको आजमा कर देखना किसी बच्चे से कहना कि तुम फलां कमरे में मत जाना। और सबसे पहले वह बच्चा जो करेगा, वह यही करेगा कि वह उस कमरे में
जाएगा।
एक छोटा संन्यासी, धीरेश लंदन वापस जा रहा था। मैंने उसे एक डिब्बी दी और उससे कहा कि वह उसे खोले नहीं। उसने मेरे से कहा भी, 'हां, मैं इसे नहीं खोलूंगा।' और फिर मैंने उसकी मां से कुछ बात की और मैंने उससे फिर से कहा, ' ध्यान रहे, इस डिब्बी को खोलना नहीं है।' वह बोला 'मैं कभी इसे नहीं खोलूंगा।' उसकी मा बोली, 'उसने तो डिब्बी पहले ही खोलकर देख ली है।'
यह परमात्मा ही है जो ध्यान आकर्षित करवाता है जब उसने अदम से कहा, 'इस वृक्ष के फल को मत चखना तो किसी शैतान की कोई जरूरत नहीं है। परमात्मा स्वयं ही सब से बड़ा प्रलोभन देने चला है, क्योंकि वह चाहता है तुम संसार में जाओ, अनुभव करो। यहां तक कि अगर तुम भटक भी जाओ तो भी तुम परमात्मा से अलग नहीं हो सकते। क्योंकि परमात्मा से अलग होकर तुम जा कहां सकते हो? अगर कुछ गलत हो भी जाए, तो क्या गलत हो जाएगा? क्योंकि हर कहीं वही व्याप्त है? तुम उससे अलग होकर कुछ कर ही नहीं सकते हो। ऐसी कोई संभावना ही नहीं है। यह तो बस आख-मिचौनी का ही खेल है। परमात्मा तुम्हें जोखिम से खेलने के लिए भेजता है, और फिर तरहतरह के प्रलोभन देता है क्योंकि यही एकमात्र ढंग है आदमी के विकसित होने का।
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