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अहंकार का मतलब होता है, इस संपूर्ण अस्तित्व से पृथक हो जाना, अलग हो जाना स्वयं इस विराट अस्तित्व से पृथक महसूस करने लगना और अस्तित्व से पृथक होने का भाव केवल एक विचार मात्र होता है, वास्तविकता नहीं केवल यह एक कल्पना मात्र होती है, इसमें सच्चाई जरा भी नहीं होती है। यह एक तरह का सपना ही होता है जिसे हम अपने आसपास निर्मित कर लेते हैं। हम इस अस्तित्व मे पृथक नहीं है। और पृथक हम हो भी नहीं सकते हैं, क्योंकि जैसे ही हम अस्तित्व से पृथक होते हैं तो फिर हमारा अस्तित्व भी नहीं रह जाता। तब तो जीवन ऊर्जा का प्रवाह भी नहीं रहेगा और वह जीवन-ऊर्जा निरंतर हम में प्रवाहित होती रहती है, चाहे हम सोचें भला कि हम पृथक हैं। अस्तित्व इस बात की फिकर नहीं करता। वह निरंतर हमें पोषित करता चला जाता है और हमारी देखभाल किए चला जाता है। अस्तित्व अनेकानेक ढंग से हमें भरता ही चला जाता है।
लेकिन तुम्हारा यह विचार कि हम अस्तितव से पृथक हैं, अस्तित्व से अलग अलग हैं बहुत सी चिंताओं, और परेशानियों का कारण बन जाता है। हमारा इतना सोचना मात्र कि हम अस्तित्व से पृथक हैं, तुरंत हम अपने भीतर एक विभाजन खड़ा कर लेते हैं। इसी विभाजन के कारण वह सब जो हमारे में स्वाभाविक रूप से होता है, वही हमें निम्न मालूम होने लगता है क्योंकि वह संपूर्ण अस्तित्व से संबंधित मालूम होता है। इसीलिए कामवासना के लिए हमारे मन में निंदा का भाव आ जाता है, क्योंकि वह संपूर्ण अस्तित्व से जुड़ी हुई मालूम पड़ती है।
इसी कारण दुनिया के सभी तथाकथित धर्म कामवासना की निंदा किए चले जाते हैं। और मैं तुम से कहना चाहता हूं कि जब तक हम कामवासना को पूर्णरूप से स्वीकार नहीं कर लेते, तब तक कोई भी व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता, क्योंकि धर्म उसी कामवासना की ऊर्जा का रूपांतरण है। कामवासना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है, कामवासना को तो स्वीकार करना ही होगा ही, कामवासना का रूपांतरण जरूर संभव है। लेकिन कामवासना का रूपांतरण केवल तभी संभव है जब वह हमारे अस्तित्व की गहन स्वीकृति से आता हो। अगर हम प्रकृति को स्वीकार कर लें, तो फिर वह पूरी तरह से बदल जाती है। प्रकृति को अस्वीकार करने में ही सभी कुछ तिक्त और कडुवा हो जाता है; और तब हम अपने ही हाथों नर्क का निर्माण कर लेते हैं।
लेकिन अहंकार की यह आदत है कि वह किसी की भी निंदा करके प्रसन्न होता है, क्योंकि केवल निंदा करके ही हम अपने को थोडा सुपीरियर थोड़ा श्रेष्ठ अनुभव कर सकते हैं।
मैं कहीं पढ़ रहा था, एक बार ऐसा हुआ
एक चर्च में उपदेश देने वाले पादरी ने अपनी – सभा में कहा, 'वे सभी लोग खड़े हो जाएं जिन्होंने पिछले हफ्ते पाप किए हैं। सभा में बैठे हुए लोगों में से आधे लोग खड़े हो गए। फिर पादरी ने कहा, 'अब वे लोग खड़े हो जाएं, जिन्हें अगर पाप करने का अवसर मिला होता तो उन्होंने पाप कर लिया होता । 'सभा में बैठे हुए शेष लोग भी खड़े हो गए ।