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असली और नकली प्रेम में क्या फर्क होता हैं? असली और नकली प्रेम में फर्क यह है कि जब तम खोटे सिक्के की भांति नकलीपन लिए प्रेम करते हो, तो तुम बस कल्पना ही कर रहे होते हो कि तुम प्रेम कर रहे हो। यह मन की चालाकी ही होती है। तुम कल्पना करते हो कि तुम प्रेम करते हो -जैसे कि सारा दिन भूखे रहो, उपवास करो और रात तुम सोने के लिए जाओ और सपने में देखो कि भोजन कर रहे हो। क्योंकि आदमी इतना प्रेम विहीन जीवन जीता है कि मन प्रेम के सपने ही देखता रहता है और अपने आसपास प्रेम के झूठे, एकदम झूठे सपने गढ़ता रहता है। वे सपने किसी भाति जीवन जीने में तुम्हारी मदद करते हैं। और इसीलिए सपने बार -बार टूटते हैं, प्रेम बिखरता है और तुम फिर से कोई दूसरा प्रेम का सपना बुनने लगते हो –लेकिन फिर भी कभी इस बात के प्रति कभी जागरूक नहीं होते कि इन सपनों से प्रेम में कोई मदद मिलने वाली नहीं है।
किसी ने गुर्जिएफ से पूछा कि प्रेम कैसे करें?
गर्जिएफ ने कहा, पहले प्रामाणिक होओ, अन्यथा सभी प्रेम झूठे होंगे। अगर तुम्हारा प्रेम प्रामाणिक है,
और तुम सच में ही प्रेम करते हो, और तुम्हारे प्रेम में होश और बोध है, तभी केवल प्रेम की संभावना होती है, वरना प्रेम की कोई संभावना नहीं है।
प्रेम तो आदमी की छाया की भाति होता है। केवल बुद्ध, क्राइस्ट, पतंजलि ही प्रेम कर सकते हैं। तुम तो अभी जैसे हो, प्रेम नहीं कर सकते हो। क्योंकि प्रेम तो तुम्हारे होने का एक ढंग है। अभी तुम्हारा होना ही पूर्ण नहीं है, अभी तो तुम पूरी तरह से जागरूक भी नहीं हो तो फिर प्रेमपूर्ण कैसे हो सकते
हो।
प्रेम में जागरूकता और होश की आवश्यकता होती है। सोए –सोए, नींद में, मूर्छा में तुम प्रेम नहीं कर सकते हो। अभी तो तुम्हारा जो प्रेम है, वह प्रेम की अपेक्षा घृणा अधिक है -इसीलिए किसी भी क्षण तुम्हारा प्रेम खटाई में पड़ जाता है, किसी भी क्षण प्रेम टूट जाता है। किसी भी क्षण तुम्हारा प्रेम ईर्ष्या बन जाता है। तुम्हारा प्रेम किसी भी क्षण घृणा बन जाता है। तुम्हारा प्रेम सही अर्थों में प्रेम है
हीं। तुम्हारा तथाकथित प्रेम एक शारीरिक आवश्यकता है। उसमें कोई स्वतंत्रता नहीं है। उसमें परतंत्रता ही अधिक होती है –और फिर परतंत्रता किसी भी प्रकार की क्यों न हो, वह कुरूप और असुंदर होती है। एक सच्चा और वास्तविक प्रेम व्यक्ति को मुक्त करता है, वह व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता देता है। उसमें कोई शर्त नहीं होती है, वह बेशर्त होता है। वह कुछ मांगता नहीं है। वह तो बस अपने प्रेम को बांटता है, और दूसरे लोगों को उसमें सहभागी बनाता है। और इस बात के लिए प्रसन्न और अनुगृहीत होता है कि मैं अपने प्रेम में दूसरों को सहभागी बना सका, उसे दूसरों के साथ बांटना संभव हो पाया। और तुमने उसे स्वीकार किया इसके लिए वह अनुगृहीत होता है।
सच्चे प्रेम में किसी तरह की मांग नहीं होती है। यह बात दूसरी है कि सच्चे प्रेम के पास बहुत कुछ चला आता है, लेकिन उसकी तरफ से कोई मांग नहीं होती है।