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बुद्ध उन लोगों को ही उपलब्ध होते हैं जो उनके प्रति सुलभ होते हैं, जो उनके प्रति खुले होते हैं। मैं तुम्हें उपलब्ध रहूंगा अगर तुम मेरे प्रति खुले हुए और सुलभ रहे। इसलिए मेरे प्रति खुलना और उपलब्ध होना सीख लेना ।
अंतिम प्रश्न:
भगवान उस करीब-करीब योगी हृदय के विषय में आपके उत्तर ने मुझे निम्नलिखित संवाद की याद दिला दी है:
पत्नी- 'प्रिय जब से हमारा विवाह हुआ तुम मुझे ज्यादा प्यार करते हो या कम?'
पति- 'ज्यादा या कम ।
कम और ज्यादा की भाषा में प्रेम के विषय में पूछना मूढता है, क्योंकि प्रेम न तो ज्यादा हो सकता है और न ही कम हो सकता है। या तो प्रेम होता है और या फिर नहीं होता है। प्रेम की कोई मात्रा नहीं होती; प्रेम तो गुण है। उसे मापा नहीं जा सकता है। प्रेम को अधिक या कम की भाषा में नहीं सोचा जा सकता। यह प्रश्न ही असंगत है। लेकिन प्रेमी हैं कि पूछते ही चले जाते हैं, क्योंकि वे जानते ही नहीं हैं कि प्रेम होता क्या है। प्रेम के नाम पर वे जो कुछ भी जानते हैं वह कुछ और ही होता होगा, वह प्रेम नहीं हो सकता है क्योंकि प्रेम की कोई मात्रा नहीं होती।
कैसे
तुम ज्यादा प्रेम कर सकते हो? कैसे तुम कम प्रेम कर सकते हो ?
या तो तुम प्रेम करते हो, या तुम प्रेम नहीं करते हो।
या तो प्रेम तुम्हें चारों ओर से घेर लेता है और तुम्हें पूर्णरूप से भर देता है, या फिर प्रेम पूर्णरूप से तिरोहित हो जाता है और होता ही नहीं है फिर प्रेम का एक निशान भी नहीं बचता है। प्रेम एक संपूर्णता है। उसे विभक्त नहीं किया जा सकता है, प्रेम का विभाजन संभव ही नहीं है। प्रेम अविभाज्य होता है। अगर प्रेम अविभाज्य नहीं है तो सचेत हो जाना। तो फिर जिसे तुमने अभी तक प्रेम जाना है वह खोटा सिक्का है ऐसे प्रेम को छोड़ देना और ऐसे प्रेम को जितनी जल्दी छोड़ सको उतना ही अच्छा है - और असली सिक्के की, असली प्रेम की तलाश करना ।