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दूसरा संत बोला, 'मगर तुमने तो कहा था कि वह हरी है।'
पहला संत, 'तुम उसको हरे रंग में रंग सकते हो।'
लाल हिलसा, लेकिन फिर भी तुम उसे रंग तो सकते हो!
दूसरा संत 'लेकिन तुमने तो कहा था कि वह दीवार पर लटकी रहती है।'
पहला संत. 'निश्चित ही तुम उसे दीवार पर लटका सकते हो।'
दूसरे संत ने कहा, 'लेकिन तुमने तो कहा था वह सीटी बजाती है।'
पहला संत 'ऐसे वह सीटी नहीं बजाती है।'
इस तरह लोग बात को आगे और आगे चलाए चले जाते हैं। मौलिक बात तो बचती नहीं है, लेकिन तो भी उसे पकड़े चले जाते हैं। और फिर यही उनकी इगो -ट्रिप बन जाती है, उनका अहंकार बन जाता है।
सार्च एक प्रामाणिक और ईमानदार आदमी है, लेकिन उसकी पूरी यात्रा इगो –ट्रिप बन गयी है, अहंकार की यात्रा बन गयी है। उसे थोड़े से साहस की और हिम्मत की आवश्यकता है। ही, मैं तुम से कहता हूं कि नहीं कहने के लिए साहस चाहिए; लेकिन ही कहने के लिए तो और भी अधिक साहस चाहिए। क्योंकि नहीं कहने में तो अहंकार भी सहयोगी हो सकता है, उसमें तो अहंकार का भी पोषण हो सकता है। प्रत्येक नहीं के साथ अहंकार सहयोगी हो सकता है। नहीं कहना- अच्छा लगता है, क्योंकि उससे अहंकार को पोषण मिलता है, उससे अहंकार और अधिक मजबूत होता है। लेकिन ही कहने में समर्पण चाहिए; इसलिए हा कहने के लिए अधिक साहस की आवश्यकता होती है।
सार्च को अपने ढंग में, अपने व्यवहार में पूरी तरह से रूपांतरण की जरूरत है, जहां कि अंततः नहीं ही में रूपांतरित हो जाती है। तब सार्च झेन की भांति न होगा, वह झेन ही होगा।
और झेन के भी पार है बुद्धावस्था। बुद्धावस्था है झेन के भी पार. परम संबोधि, पतंजलि की निर्बीज समाधि, बीज रहित समाधि-जहां हां भी गिर जाता है, क्योंकि हां भी नहीं के विरुद्ध ही होता है। जब नहीं सच में गिर जाता है, तो हां को ढोने की भी जरूरत नहीं रह जाती है।
हम क्यों कहते हैं कि परमात्मा है? क्योंकि हमें इस बात का भय है कि कौन जाने शायद परमात्मा न हो। हम नहीं कहते कि अभी दिन है। हम नहीं कहते कि यही सूर्योदय है, क्योंकि हम जानते हैं कि
भी हम जोर देते हैं कि यह ऐसा है, तो हमारे गहरे अचेतन में कहीं भय छिपा होता है। हम भयभीत होते हैं कि शायद ऐसा न भी हो। उसी भय के कारण हम जोर दिए चले जाते हैं,