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एक पागल आदमी हाथ में लालटेन लेकर, रोता-चिल्लाता बाजार पहुंच गया, 'मैं ईश्वर को जानता हूं! मैं ईश्वर को जानता हूं!' लेकिन फिर भी बाजार की व्यस्त भीड़ ने उसके चिल्लाने पर कोई ध्यान नहीं दिया और उसके इस हास्यास्पद व्यवहार पर हंसने लगी। अचानक भीड़ की ओर मुड़कर उस आदमी ने पूछा, 'कहां है ईश्वर? मैं तुम्हें बताता हूं। हमने उसे मार डाला है-तुमने और मैंने उसे मार डाला है।' लेकिन जब भीड़ ने उसकी इस उदघोषणा की भी उपेक्षा कर दी, तो अंततः उसने अपनी लालटेन जमीन पर पटकी और चिल्लाया, 'मैं बहुत जल्दी आ गया हूं। मेरा समय अभी भी नहीं आया है। यह अदभुत घटना अभी आने को है।'
यह कथा बहुत महत्वपूर्ण है। जैसे -जैसे आदमी विकसित होता है, उसका परमात्मा बदलता जाता है। ऐसा होगा ही, क्योंकि मनुष्य अपना परमात्मा अपनी कल्पना में ही निर्मित करता है, अपनी कल्पना के विपरीत नहीं। ऐसा नहीं है जैसा कि बाइबिल में कहा गया है कि परमात्मा अपनी कल्पना से मनुष्य का निर्माण करता है। मनुष्य ही अपनी कल्पना से परमात्मा की प्रतिमा बना लेता है। जब आदमी की कल्पना बदलती है, तो निश्चित रूप से उसका परमात्मा भी बदल जाता है। और जब विकास अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंच जाता है, तब परमात्मा पूरी तरह तिरोहित हो जाता है।
व्यक्तिगत परमात्मा मनुष्य के अपरिपक्व मन का ही परिणाम है। अस्तित्व का परमात्मा रूप हो जाना एक बिलकुल ही अलग अवधारणा है। तब परमात्मा कहीं आकाश में बैठा, संसार पर शासन करता, संसार को चलाता, नियंत्रित करता, व्यवस्थित करता कोई व्यक्ति नहीं होता है।
नहीं, जब मनुष्य परिपक्व होता है तो वे सारी नासमझियां खो जाती हैं। यह तो बचपन में बना परमात्मा की अवधारणा है, परमात्मा की बचकानी अवधारणा। अगर किसी छोटे बच्चे को परमात्मा को समझाना हो, तो वह परमात्मा को किसी व्यक्ति की भांति ही जान सकता है। जब मनुष्य-जाति विकसित और परिपक्व होती है, तो परमात्मा की पुरानी धारणा भी समाप्त हो जाती है। तब एक सर्वथा अलग ही अस्तित्व प्रकट होता है। तब संपूर्ण अस्तित्व ही परमात्मा का रूप हो जाता है तब ऐसा नहीं होता है कि कहीं कोई परमात्मा बैठा हुआ है।
यह बोध कि कहीं कोई व्यक्तिगत परमात्मा नहीं है, स्वयं नीत्शे को भी बहुत भारी पड़ा। वह इसे बर्दाश्त नहीं कर सका, और वह पागल हो गया। जो अंतर्दृष्टि उसे मिली थी, वह उसके लिए
तैयार न था। वह स्वयं अभी बच्चा ही था, उसे व्यक्तिगत परमात्मा की जरूरत थी। लेकिन इस बात पर जब उसने चिंतन -मनन किया, और जैसे -जैसे उसने इस पर चिंतन-मनन किया वह इस बात के प्रति अधिकाधिक जागरूक होता चला गया कि कहीं कोई आकाश में परमात्मा बैठा हुआ नहीं है। परमात्मा तो बहुत पहले ही मर चुका है। और साथ ही उसे इस बात का बोध भी हआ कि हम लोगों ने ही उसे मार दिया है।