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वदो नहीं हैं। संगीत ध्यान है-एक निश्चित आयाम में, एक ही दिशा में अवस्थित हुआ ध्यान है।
और ध्यान संगीत है -एक ऐसा संगीत जिसकी कोई सीमा नहीं है, कोई ओर-छोर नहीं है। वे दोनों दो नहीं हैं।
अगर तुम संगीत से प्रेम करते हो, तो केवल इसीलिए प्रेम करते हो, क्योंकि संगीत के माध्यम से तुमको ध्यान का अनुभव होता है। संगीत के माध्यम से तुम स्वयं में हो जाते हो। संगीत को सुनते -सुनते अज्ञात का कुछ तुम में उतरने लगता है? परमात्मा के स्वरों का संस्पर्श मिलने लगता है। तुम्हारा हृदय एक अलग ही लय पर थिरकने लगता है, ब्रह्मांड के साथ उसका तालमेल बैठ जाता है। अचानक अस्तित्व के साथ तुम्हारे तार जुड़ जाते हैं। एक अपरिचित नृत्य तुम्हारे हृदय में उतर आता है-और वे द्वार जो हमेशा से बंद थे, खुलने लगते हैं। एक शीतल हवा का झोंका और तुम तरोताजा हो जाते हो, और वह शीतल हवा का झोंका सदियों –सदियों से जमी हुई धूल उड़ाकर ले जाता है। और ऐसा लगता है जैसे आत्मा का स्नान हो गया हो-और वह स्वच्छ, ताजा हो गई हो।
संगीत ध्यान है; ध्यान संगीत है। ये एक ही जगह पहुंचने के दो द्वार हैं।
अंतिम प्रश्न:
जब आपको कुर्सी पर बैठे हुए देखता हूं तो मैं और अधिक उलझन में पड़ जाता हूं क्योंकि आप कुर्सी पर इतने अविश्वसनीय ढंग से विश्रांत और आराम से बैठे होते हैं कि आप एकदम भारविहीन मालूम पड़ते हैं। आप गुरुत्वाकर्षण के नियम के साथ क्या करते हैं?
रुत्वाकर्षण के नियम के साथ कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। जब भी कोई व्यक्ति ध्यान में
होता है, तो उसके लिए अलग ही नियम काम करता है: प्रसाद का नियम। तुम एक अलग ही जगत के लिए. प्रसाद के जगत के लिए उपलब्ध हो जाते हो। तब वह प्रसाद ऊपर की ओर खींचने लगता है। जैसे गुरुत्वाकर्षण नीचे की ओर खींचता है, वैसे ही कोई चीज ऊपर की ओर खींचने लगती है।
गुरुत्वाकर्षण के साथ कछ भी करने की जरूरत नहीं है। तुम्हें तो बस अपने अस्तित्व में एक नया द्वार खोल लेना है, जहां से परमात्मा का प्रसाद तुम्हें उपलब्ध हो सके।