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इतने सुस्त मत बनो और बात को स्थगित मत करते जाओ।
सातवां प्रश्न:
जब भी मैं आपके निकट होता हूं तो तनाव अनुभव करता हूं और मुझे इस बात के लिए प्रकट रूप से तो तीन कारण दिखाई पड़ते हैं पहला : मुझे लगता है कि मेरी परीक्षा ली जा रही है। दूसरा. मैने आप से इतना कुछ पाया है कि बदले में मैं भी कुछ आपको देना चाहता हूं-और ऐसा असंभव भी लगता है। और तीसरा : मुझे ऐसा लगता है कि अभी भी आपसे कुछ ग्रहण करना है और मुझे डर लगता है कि कहीं उसे चक न जाऊं।
पछा है अजित सरस्वती ने, डॉक्टर फड़नीस ने। तीनों कारण ठीक हैं, और मुझे इस बात की
प्रसन्नता है कि वे इन बातों के प्रति सजग हैं और चीजों को गहराई में देख सकते हैं। हौ, सभी कारण बिलकुल ठीक हैं।
जब भी वह मेरे निकट होते हैं, तो मुझे भी लगता है कि वे थोड़े घबराए हुए हैं, भीतर ही भीतर थोड़े कंपित हैं। और यही है कारण। और यह अच्छा है, इसमें कुछ गलत नहीं है। ऐसा ही होना भी चाहिए।
अगर तुम मेरी मौजूदगी को अनुभव करने लगो, तो मेरे और तुम्हारे बीच तुम्हें एक अंतराल दिखाई पड़ने लगता है। तब लगता है अभी तो बहुत यात्रा शेष है। तब एक तरह की घबराहट अनुभव होती है कि पदय नहीं ऐसा संभव हो सकेगा या नहीं। मैं तम्हें बहत कछ दे रहा हं, और जितना अधिक तम ग्रहण करते हो, उतने ही अधिक ग्रहण करने में सक्षम होते जाओगे। और यही संभावना कि और अधिक, और अधिक ग्रहण किया जा सकता है, एक घबराहट पैदा कर देती है, क्योंकि तब एक बड़ा उत्तरदायित्व तुम्हारे ऊपर आ जाता है।
विकसित होते चले जाना, यह एक बड़ा उत्तरदायित्व है। विकास एक जिम्मेदारी है। यह सर्वाधिक बड़ा उत्तरदायित्व है जो कि...... और फिर यह भय कि अगर कहीं अवसर आ गया और कहीं चूकना न हो जाए। यह बात घबराहट पैदा करती है।
और तुम ठीक कहते हो, जब मुझ से तुम्हें कुछ मिलता है तो तुरंत तुम्हारा हृदय कहता है कि बदले में कुछ दे दो। और वह बात असंभव है। यह मैं समझता हूं। तुम सिवाय अपने मुझे और क्या दे सकते हो।