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उसने बात समझ ली है। एकदम ठीक समझ ली है उसने बात, लेकिन बौद्धिक रूप से। जब मैंने पिछली बार उसके थोड़े से वक्तव्यों पर बात की, तो मैंने उन सभी को ठीक बताया। वे सभी बिलकुल सही हैं, लेकिन मैंने उसके बारे में कोई बात नहीं कही है। जो कुछ उसने कहा है, एकदम ठीक है। लेकिन तुम लाओत्सु का अध्ययन कर सकते हो, बौद्धिक रूप से तुम समझ भी सकते हो और तुम वही बातें दोहरा भी सकते हो। जहां तक शब्दों का संबंध है वे सही हैं, लेकिन वह स्वयं बौदधिक रूप से जुड़ा हआ लगता है; अस्तित्वगत रूप से नहीं जाना है उसने। और यही समस्या है।
और यही सब से बड़ी समस्या है जिसका सामना व्यक्ति को करना होता है। मेरी हर बात तुम समझ लेते हो, तुम दूसरों को भी समझा सकते हो, लेकिन बुद्धत्व उतना ही दूर रहेगा जितना कि सदा था। बौदधिक रूप से समझने का प्रश्न ही नहीं है, यह बात है समग्र समझ की तुम्हारा पूरा अस्तित्व उसे समझता है, केवल तुम्हारा मस्तिष्क ही नहीं। तुम्हारा हृदय समझता है उसे। और केवल तुम्हारा हृदय ही नहीं-तुम्हारा रक्त और तुम्हारी हड्डियां, तुम्हारे मांस-मज्जा को समझ आती है बात। कोई चीज छूटती नहीं, तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व उस बोध में नहा जाता है, उस समझ में स्नान कर लेता है। तब एक सुगंध उठती है, तब एक नृत्य घटित होता है, तब तुम खिल उठते हो।
और केवल एक कदम उठता है और यात्रा पूरी हो जाती है। तुम्हारे और मेरे बीच दूरी केवल एक कदम की है-दूरी ज्यादा नहीं है। दो कदमों की भी जरूरत नहीं है।
लेकिन भूलो एरहाई को। बस अपनी फिक्र कर लो, क्योंकि एरहार्ड तो अपने लिए ही एक समस्या है, तुम्हारा इससे क्या लेना-देना कि उसकी फिक्र करो? तुम केवल अपनी फिक्र कर लो। क्या तुम्हें बहुत बार ऐसा अनुभव नहीं हुआ कि तुम मुझे पूरी तरह समझ गए हो, और फिर-फिर तुम चूक जाते हो? क्यों? यदि तुम मुझे समझ लेते हो, तो फिर तुम क्यों चूकते हो?
तुम मुझे समझ लेते हो बौद्धिक रूप से, शाब्दिक रूप से, सैद्धातिक रूप से, लेकिन तुम्हारा अस्तित्व उसमें सम्मिलित नहीं होता। तो जब तुम मेरे निकट होते हो तो तुम समझ लेते हो, जब तुम दूर जाते हो तो समझ खो जाती है। तम फिर अपने उसी पराने रंग-ढंग में, तम्हारे उसी पराने संसार
और ढांचे में लौट जाते हो। जब तुम मेरे साथ होते हो तो तुम स्वयं को भूल जाते हो और हर चीज स्पष्ट हो जाती है, एकदम पारदर्शी। मुझ से दूर होकर तुम फिर अपने अंधेरे में जा पड़ते हो और हर चीज उलझ जाती है और कोई चीज साफ नहीं रहती।
बस एक कदम। और वह कदम अपने पूरे प्राणों से उठाना होता है। तुम बस बैठे हो और कल्पना कर रहे हो कि तुमने कदम उठा लिया है। तुम बैठे रह सकते हो और तुम कल्पना किए चले जा सकते हो एक महायात्रा की। यदि तुम ऐसा ज्यादा देर तक करते रहे तो यात्रा इतनी वास्तविक लगने लगती है, इतनी सत्य मालूम होने लगती है कि तुम किसी बुद्ध पुरुष की भांति बोलने भी लग सकते होलेकिन उससे कुछ हल नहीं होगा।