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उसके लिए समर्पण करना असंभव होगा। स्त्री को कोई ऐसा पुरुष चाहिए जिसके प्रति वह समर्पण कर सके-कोई जो पौरुषेय हो। स्त्री का व्यक्तित्व निष्किय है, पुरुष का व्यक्तित्व सक्रिय है. यिन और यांग। वे एक-दूसरे के परिपूरक हैं।
स्त्री के लिए समर्पप आसान है। वह उसके स्वभाव का हिस्सा है। लेकिन समर्पण को स्वीकार करना उसके लिए बहुत कठिन है-और गुरु को स्वीकार करना होता है शिष्यों का समर्पण। तो बहुत थोड़ी स्त्रियां गुरु हुई हैं-बहुत ही कम। लेकिन मुझे सदा संदेह रहा है कि उन स्त्रियों में जरूर थोड़े पुरुष हार्मोन्स रहे होंगे। वे पूरी तरह स्त्रियां नहीं रही होंगी।
भारतीय इतिहास में एक उदाहरण है : जैनों के चौबीस तीर्थंकरों में एक स्त्री थी, मल्लीबाई उसका नाम था। लेकिन जैनों का एक सर्वाधिक रूढ़िवादी संप्रदाय, दिगंबर संप्रदाय, वे उसे स्त्री नहीं मानते। वे उसका नाम 'मल्लीबाई' नहीं लिखते, वे उसका नाम 'मल्लीनाथ' लिखते हैं। वह पुरुष का नाम है, वह स्त्री का नाम नहीं है। मैंने बहुत सोच-विचार किया इस बात पर कि ऐसा क्यों है! फिर मैंने अनुभव किया कि दिगंबर ठीक कहते हैं। वह स्त्री केवल नाम को ही स्त्री रही होगी, अन्यथा वह पुरुष ही थी। तीर्थंकर हो जाना, यह बड़ी गैर-स्त्रैण बात है। लाखों व्यक्तियों को और उनके समर्पण को स्वीकार करना इतनी अस्त्रियोचित बात है कि वह स्त्री केवल शारीरिक रूप से ही स्त्री रही होगी। उसका अंतस पुरुष का था।
तो दिगंबर ठीक कहते हैं। श्वेतांबर कहते हैं कि वह स्त्री थी। वे ज्यादा यथार्थ कह रहे हैं लेकिन फिर भी सही नहीं हैं। ज्यादा तथ्यात्मक-लेकिन ज्यादा ठीक नहीं। वे तथ्य की सूचना दे रहे हैं। और कई बार तथ्य सच नहीं होते। कई बार तथ्य बड़े भ्रामक होते हैं; और कई बार तथ्य इतना ज्यादा झूठ कह सकते हैं कि काल्पनिक कथाएं झेंप जाएं। यह एक तथ्य है कि यह मल्लीबाई एक स्त्री थीलेकिन सच्चाई यह नहीं है। दिगंबरों के पास ठीक आधार है। उन्होंने इस तथ्य को भुला दिया कि वह स्त्री थी; उन्होंने उसे पुरुष के रूप में माना है। उसका संपूर्ण अस्तित्व जरूर पुरुष जैसा रहा होगा।
ऐसा बहुत कम होता है। राजनीति में, धर्म में, जब भी कोई स्त्री सफल होती है तो वह स्त्रैण होने की अपेक्षा पुरुष जैसी ज्यादा होती है। लक्ष्मीबाई हो या जोन ऑफ आर्क, वे स्त्रियों जैसी नहीं जान पड़ती। केवल शरीर, बाह्य आवरण ही स्त्री का होता है। भीतर पुरुष होता है।
इसीलिए उनके विषय में ज्यादा पता नहीं है, क्योंकि जब तक तुम गुरु न बनो, तो कैसे लोग तुम्हें जानेंगे? तुम्हारा बुद्धत्व, तुम्हारा प्रकाश भीतर ही रहता है। तुम दूसरों को राह नहीं दिखाते; दूसरों को कभी पता ही नहीं चलता इस बारे में। लेकिन मेरी समझ यह है कि प्रकृति में सदा एक संतुलन रहता है।
संसार में स्त्रियों की उतनी ही संख्या है, जितनी पुरुषों की। जीवशास्त्रियो को बहुत आश्चर्य भी है कि ऐसा कैसे होता है! कैसे प्रकृति इसे व्यवस्थित करती है! कैसे प्रकृति जानती है कि वही अनुपात