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और योगी के विषय में सोचना कि उसमें घृणा उत्पन्न होती है अपने शरीर के लिए, यह बात ही अविश्वसनीय है, क्योंकि योगियों ने तो अपने शरीर का ऐसा ध्यान रखा है जैसा ध्यान कभी किसी ने नहीं रखा। वे अपने शरीर को इतने खयाल से सम्हालते हैं, जितना कोई कभी नहीं सम्हालता है। उनके पास सुंदर शरीर होते हैं, बड़े सुंदर और सुडौल । महावीर या बुद्ध को देखो - कितनी सुंदर काया है उनकी! मानो पदार्थ में दिव्य संगीत उत्तर आया हो नहीं, यह बात संभव नहीं घृणा एक गलत शब्द है, पहली बात यह समझ लेनी है।
'जुगुप्सा' का अर्थ घृणा नहीं है अर्थ बड़ा कठिन है, मुझे स्पष्ट करना होगा तुमको तीन तरह के लोग होते हैं। एक जो पागलों की तरह अपने शरीर के प्रेम में होते हैं; वस्तुतः वे शरीर से आविष्ट होते हैं। विशेषकर स्त्रियां- - बहुत शरीर से बंधी होती हैं। देखना किसी स्त्री को : जितनी खुश वह दर्पण के सामने होती है उतनी खुश वह किसी और वक्त नहीं होती - नार्सिस्टिक, आत्म- मोह से ग्रस्त। घंटों वे खड़ी रह सकती हैं दर्पण के सामने आविष्ट ! कुछ गलत नहीं है दर्पण के सामने खड़े होने में, लेकिन बस वहीं जमे रहना घंटों तक पागलपन जैसा मालूम पड़ता है।
यह है पहला प्रकार, जो निरंतर ग्रस्त होता है शरीर से इतना ज्यादा ग्रस्त कि वह भूल जाता है कि शरीर से पार भी उसका अस्तित्व है। शरीर के पार का तत्व भुला दिया जाता है, वह मात्र शरीर हो जाता है वह शरीर का मालिक नहीं होता है; शरीर मालिक होता है उसका यह है पहली प्रकार का व्यक्ति ।
आविष्ट होता है-उलटी
दूसरी प्रकार का व्यक्ति पहले के ठीक विपरीत होता है वह भी शरीर से दिशा में। वह शरीर के विरुद्ध होता है, उसके प्रति घृणा से भरा होता है. उसने तोड़ दिया है दर्पण । वह लाखों ढंग से अपने शरीर को सताता रहता है, वह घृणा करता है शरीर से। पहला व्यक्ति उससे प्रेम करता है पागल की भांति; दूसरा दूसरी अति पर चला जाता है - वह घृणा करता है उससे । वह आत्महत्या कर लेना चाहता है।"
तुम देख सकते हो दूसरे प्रकार के लोगों को वे शायद योगी होने का दिखावा कर रहे होंगे, लेकिन वे
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योगी नहीं हैं। योगी घृणा नहीं कर सकता है। यह किसी चीज से घृणा करने का प्रश्न नहीं है. योगी घृणा ही नहीं कर सकता। क्योंकि घृणा से अशुद्धता पैदा होती है। यह किसी दूसरे को या किसी चीज को या अपने शरीर को घृणा करने का प्रश्न नहीं है. घृणा का विषय चाहे कुछ भी हो, घृणा अशुद्ध पैदा करती है योगी अपने शरीर को घृणा नहीं कर सकता है। लेकिन तुम इस तरह के विकृत योगी देख सकते हो बनारस की गलियों में जो लेटे हुए हैं काटो पर या लोहे की नुकीली कीलों पर अपने शरीर को सता रहे हैं। यह एकदम विपरीत अति पर है उस स्त्री से जो कि दर्पण के सामने खड़ी मजा ले रही है।