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यदि तुम इसलिए अहिंसक हो कि कहीं दूसरों को चोट न पहुंचे, तो तुम वस्तुत: अहिंसक नहीं हो। तुम एक अच्छे सामाजिक नागरिक हो, सुसभ्य हो, लेकिन धर्म की कोई घटना नहीं घटी है तुम्हारे भीतर। तुम्हारी अहिंसा तुम्हारे और दूसरों के बीच एक सौहार्दपूर्ण वातावरण का काम करेगी। तुम्हारा जीवन थोड़ा ज्यादा शात हो जाएगा, लेकिन ज्यादा शुद्ध न होगा, क्योंकि लक्ष्य से पूरी गुणवत्ता बदल जाती है। किसी दूसरे को बचाने का लक्ष्य नहीं है; दूसरा बच जाता है, वह बात गौ"। है। लक्ष्य है शुद्ध होने का, ताकि तुम परम शुद्धता को जान सको।
पूरब के धर्म स्वार्थी हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि अन्यथा होने का कोई उपाय नहीं है, और जब कोई स्वार्थी होता है तो दूसरे बहुत लाभान्वित होते हैं। असल में सच्चा परोपकार, प्रामाणिक परोपकार गहन स्वार्थ से ही आता है। ये विपरीत नहीं हैं, ये विरोधाभासी नहीं हैं. परोपकार के फूल केवल उस अंतस में खिलते हैं जो गहन रूप से स्वार्थी होता है। स्वार्थी होना एकदम स्वाभाविक बात है। लोगों पर इससे विपरीत होने की जबरदस्ती करना उन्हें अस्वाभाविक बनाना है, और जो भी अस्वाभाविक है वह परमात्मा का ढंग नहीं है। जो भी अस्वाभाविक है वह दमन बन जाएगा; वह तुममें कोई शुद्धता न
लाएगा।
तो इसे स्मरण रखना है : यह कोई नैतिक लक्ष्य नहीं है। असल में पूरब में नैतिकता कभी लक्ष्य नहीं रही; वह धर्म की छाया है। जब धर्म घटता है, तो नैतिकता अपने ऊपर घटती है-उसके बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं रहती व्यक्ति को, वह अपने आप आती है। पश्चिम में नैतिकता लक्ष्य की भांति सिखाई जाती है-असल में धर्म की भांति सिखाई जाती है। पूरब के शास्त्रों में 'टेन कमांडमेंट्स'-दस आज्ञाओं जैसी कोई चीज नहीं, ऐसी कोई आशाएं पूरब में नहीं हैं।
जीवन को कमांडमेंट्स, आज्ञाओं के अनुसार नहीं जीना चाहिए, वरना तो तुम गुलाम हो जाओगे। और अगर तुम गुलामी से स्वर्ग भी पहुंच जाते हो, तो तुम्हारा स्वर्ग कोई स्वर्ग न होगा, गुलामी उसका एक हिस्सा होगी। स्वतंत्रता, मुक्ति तुम्हारे विकास का एक अभिन्न अंग होनी चाहिए। तो ये हैं स्वास्थ्य के, शुद्धि के उपाय। वे तुम्हें शुद्ध करते हैं, वे तुम्हें आंतरिक स्वास्थ्य देते हैं।
जब शुद्धता उपलब्ध होती है- पतंजलि कहते है-तब योगी में स्वयं के शरीर के प्रति एक जगप्सा और दूसरों के साथ शारीरिक संपर्क में आने के प्रति एक अनिच्छा उत्पन्न होती है।
'जुगुप्सा' शब्द के साथ थोड़ी कठिनाई है। सारे अनुवादों में इसे घृणा, 'डिसगस्ट' कहा गया है। यह 'डिसगस्ट' नहीं है, घृणा नहीं है; घृणा शब्द ही गलत है। यह घृणा शब्द ही घृणास्पद है।