________________ लेकिन मेरे देखे बात एक ही है : चाहे तुम किसी व्यक्ति को कैथोलिक के रूप में, ईसाई के रूप में संस्कारित करो या तुम उसे कम्युनिस्ट की भांति संस्कारित करो, मेरे देखे इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि सारी समस्या संस्कारों की है। तुम संस्कारों में बांधते हो, तुम स्वतंत्रता नहीं देते उसका। इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम ईसाई नरक में रहते हो या हिंदू नरक में रहते हो? तुम ईसाई गुलामी में जीते हो या हिंदू गुलामी में जीते हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? कोई फर्क नहीं पड़ता अगर तुम हिंदू जेल में रहते हो तो किसी दिन क्रांति हो जाती है. वे फाड़ देते हैं लेबल, वे नया लेबल लगा देते हैं : 'कम्मुनिस्ट जेल!' और तुम प्रसन्न होते हो और आनंद मनाते हो कि तुम मुक्त होउसी जेल में। केवल शब्द बदल जाते हैं। पहले तुम्हें सिखाया गया : 'ईश्वर है, उसने संसार बनाया'; अब तुम्हें सिखाया जाता है: 'ईश्वर नहीं है, और किसी ने नहीं बनाया संसार को'; लेकिन दोनों ही बातें तुम्हें सिखाई गई हैं। और धर्म सिखाया नहीं जा सकता। वह सब जो सिखाया जा सकता है, राजनीति होगी। इसीलिए मैं कहता हूं : धर्म स्वयं एक बहुत बड़ी राजनीति रहा है अतीत में। और किसी सामाजिक क्रांति की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि सारी क्रांतिया तुम्हें फिर संस्कार देगी। केवल एक संभावना है : अ-मन को उपलब्ध होने की व्यक्तिगत क्रांति। तुम निर्विचार को उपलब्ध हो जाते हो; तब कोई तुमको संस्कारित नहीं कर सकता, तब सारे संस्कार–बंधन गिर जाते हैं। तब, पहली बार, तुम मुक्त होते हो। तब सारा आकाश तुम्हारा होता है; बिना किन्हीं सीमाओं के, बिना किन्हीं दीवारों के तुम जीवन में गति करते हो। तुम जीते हो, तुम प्रेम करते हो, तुम आनंद मनाते हो, तुम आह्लादित होते हो। चौथा प्रश्न : विकास का वह कौन सा बिंदु है जहां रेचन छोड़ा जा सकता है? वह स्वयं ही छूट जाता है जब वह समाप्त हो जाता है। तुम्हें उसको छोड़ने की जरूरत नहीं होती। धीरे-धीरे तुम अनुभव करोगे कि उसमें कोई ऊर्जा नहीं रही। धीरे- धीरे तुम अनुभव करोगे कि तुम रेचन कर रहे हो, लेकिन वे रिक्त चेष्टाएं हैं, ऊर्जा मौजूद नहीं है-असल में तुम दिखावा कर रहे हो