________________ समर्पित होने के लिए। मात्र कह देने से समर्पण नहीं घट सकता है। तुम में इसकी सामर्थ्य होनी चाहिए; इसे अर्जित करना होता है। स्वाध्याय के बाद जब आत्मा एक प्रकाश-स्तंभ की भांति तुम्हारे भीतर प्रकट होती है और तुम्हें उसका स्पष्ट बोध होता है, और सब अनावश्यक काटा जा चुका और फेंका जा चुका होता है, जब तुम शल्य-क्रिया से गुजर चुके होते हो और आत्मा अपनी आदिम शुद्धता में और सौंदर्य में प्रकट होती है-अब तुम इसे परमात्मा के चरणों में समर्पित कर सकते हो। और पतंजलि बड़ी अनूठी बात कहते हैं कि यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि ईश्वर है या नहीं। ईश्वर पतंजलि के लिए कोई सिद्धात नहीं है; ईश्वर को प्रमाणित नहीं करना है। पतंजलि कहते हैं. ईश्वर समर्पण करने के लिए एक बहाने के सिवाय और कुछ नहीं है। अन्यथा कहां करोगे तुम समर्पण? यदि तुम ईश्वर के बिना समर्पण कर सको तो ठीक; पतंजलि को कोई अड़चन नहीं है। वे नहीं कहते कि ईश्वर को मानना ही है। वे इतने वैज्ञानिक हैं कि वे कहते हैं : ईश्वर जरूरी नहीं है, वह केवल समर्पण करने का एक ढंग है। वरना तुम मुश्किल में पड़ोगे कि कहां करें समर्पण? तुम पूछोगे, 'किसे करें समर्पण?' बुद्ध और महावीर जैसे लोग हुए हैं जिन्होंने ईश्वर के बिना ही समर्पण किया, लेकिन वे दुर्लभ व्यक्ति हैं, क्योंकि तुम्हारा मन तो सदा पूछेगा, 'किसे?' यदि मैं तुमसे कहता हूं 'प्रेम करो', तो तुम पूछोगे, 'किसे?' क्योंकि तुम किसी प्रेम-पात्र के बिना प्रेम नहीं कर सकते। यदि मैं तुमसे पत्र लिखने के लिए कहूं तो तुम पूछोगे, 'किस पते पर लिखू' पते के बिना तुम पत्र नहीं लिख सकते, क्योंकि वह बात एकदम मूढ़ता की लगेगी। तुम्हारा मन ऐसा है! यदि अंतिम साध्य के रूप में ईश्वर न हो और तुम से कहा जाए, 'समर्पण करो,' तो तुम कहोगे, 'किसे?' तो केवल तुम्हें बहाना देने के लिए ईश्वर एक बहाना है तुम्हारी मदद के लिए। ईश्वर कोई लक्ष्य नहीं है और ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। पतंजलि के लिए ईश्वर इस मार्ग पर एक मदद है-अंतिम मदद। ईश्वर के नाम पर समर्पण आसान हो जाता है। ईश्वर का नाम हो तो तुम्हारा मन उलझन में नहीं रहता कि कहां समर्पण करें। तुम्हारे पास समर्पण करने की एक जगह होती है, तुम्हारे पास एक जगह होती है झुक जाने के लिए। ईश्वर वही जगह है, कोई व्यक्ति नहीं। और पतंजलि कहते हैं : यदि तुम ईश्वर के बिना समर्पण कर सकते हो, तो सवाल समर्पण का हैईश्वर का नहीं। यदि तुम ठीक से समझो जो मैं कह रहा हूं तो समर्पण ही ईश्वर है। समर्पण करने का मतलब है दिव्य हो जाना, समर्पण करने का मतलब है दिव्यता को उपलब्ध हो जाना। लेकिन तुम्हें मिटना होगा। इसलिए पहले तो तुम्हें खोजना है स्वयं को, ताकि तुम मिट सको। पहले तुम्हें क्रिस्टलाइज करना है स्वयं को, ताकि तुम जा सको मंदिर में और समर्पण कर सको परमात्मा के चरणों में-उंडेल सको स्वयं को सागर में और मिट सको। 'शुद्धता, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण-ये नियम पूरे करने होते हैं।'