________________ सच में ही चमत्कार था, और ऐसा होना ही था. कबीर का लड़का कमाल ही होगा। लेकिन वह सच में ही सीधा-सहज था-एकदम बच्चे की भांति। कई बार वह मांग तक लेता! किसी की भेंट अस्वीकृत हो गई होती, कबीर ने इनकार कर दिया होता उसको-कोई हीरे ले आया होता उन्हें देने के लिए और कबीर ने उन्हें लेने से इनकार कर दिया होता-और वह आदमी उन्हें वापस ले जा रहा है और कमाल कहता, 'संदर कंकड़-पत्थर! कहां लिए जा रहे हो तुम इन्हें? इधर लाओ। यदि मेरे पिता नहीं ले सकते तो मैं ले सकता हूं।' यह बात गलत थी। तो अंततः शिष्यों ने कबीर को, उनकी मरजी के खिलाफ, राजी कर लिया और कबीर ने कहा, 'ठीक है, अगर आप सब ऐसा सोचते हैं, तो मैं उसको घर से निकाल देता हूं।' कमाल को अलग रहने को कह दिया गया। उसने कुछ नहीं कहा : उसने स्वीकार कर लिया-संतोष। उसने तर्क भी न किया कि जो लोग उसके खिलाफ शिकायत कर रहे हैं, गलत हैं। नहीं, ऐसा आदमी वाद-विवाद में नहीं पड़ता। वह चुपचाप चला गया। उसने एक छोटी सी झोपड़ी बना ली वहीं कबीर के पास ही, और वहां रहने लगा। कबीर के पास हजारों लोग आते, और कमाल के पास कोई न आता, क्योंकि उसकी बिलकुल ख्याति न थी; और यह बात सबको जाहिर थी कि कबीर ने उसे अलग कर दिया है, तो यही बात पर्याप्त निंदा का कारण थी। काशी नरेश, जो कि कबीर का भक्त था, वह एक बार आया और उसने पूछा, 'कमाल कहां है? कबीर ने सारी बात बताई। काशी नरेश ने कहा, 'लेकिन मुझे तो कभी नहीं लगा कि उस लड़के में कोई लोभ है। वह बिलकुल सीधा-सादा है। मैं जाता हूं और देखता हूं।' तो वह गया कमाल की झोपड़ी में, एक बहुत ही कीमती, जो उसके पास सब से बड़ा हीरा था, वह साथ ले गया। कमाल ने उस दिन भोजन नहीं किया था और घर में कुछ भोजन था नहीं, तो उसने कहा, 'मैं क्या करूंगा इस पत्थर का? इसे खाऊंगा कि पीऊंगा? इससे तो अच्छा था कि कुछ खाने-पीने की चीज लाते, क्योंकि मुझे भूख लगी है।' काशी नरेश ने अपने मन में सोचा, 'तो मैं ठीक ही सोचता था। क्या गजब! इतना कीमती हीरा और वह एकदम इनकार कर रहा है।' तो नरेश जब वापस जाने लगा तो उसने वह हीरा उठा लिया। कमाल ने कहा, 'अगर समझ में आ गया है कि यह पत्थर ही है तो फिर क्यों बोझ ढोते हो? छोड़ो यहीं। पहली बात तो यह कि यहां तक ढोकर लाए, एक गलती की। अब फिर क्यों वही गलती करनी वापस ढोने की? आखिर पत्थर ही है।'