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खेल। वह खेलता है बिलकुल अंत तक; सर्वथा, पूर्णतया अंत तक वह खेलता ही जाता है, अंतिम घड़ी में जब संबोधि घटने को ही होती है, तब भी मन चलता है अंतिम चालाकी। यह अंतिम लड़ाई होती है।
मत चिंता करना कि यह वास्तविक है या अवास्तविक है, या कि इसके बाद अराजकता आएगी या नहीं। इस ढंग से सोचने द्वारा अराजकता तो तुम ले ही आए हो। यह तुम्हारा विचार होता है जो कि निर्मित कर सकता है अराजकता। और जब वह निर्मित हो जाती है, तो मन कहेगा, 'अब सोच लो, मैंने तो ऐसा पहले ही कह दिया था तुमसे। '
मन बहुत स्वत: आपूरक होता है। पहले यह तुम्हें दे देता है बीज, और जब वह प्रस्फुटित होता है तो मन कहता है, 'देख लिया, मैंने तो तुमसे पहले ही कह दिया था कि तुम्हें धोखा हुआ है। 'अराजकता पहुंच चुकी और यह लायी गयी है विचार द्वारा। तो क्यों चिंता करनी इस बारे में कि भविष्य में अभी अराजकता आने को है या नहीं? कि वह गुजर गई है या नहीं? बिलकुल इसी घड़ी तुम मौन हो, क्यों नहीं उत्सव मनाते इस बात पर? और मैं कहता हूं तुमसे, यदि तुम मनाते हो उत्सव, तो वह बढ़ता है।
चेतना के इस संसार में और कुछ इतना सहायक नहीं है जितना कि उत्सव। उत्सव है पौधों को पानी देने जैसी बात। चिंता ठीक विपरीत है उत्सव के; यह है जड़ों को काट देने जैसी बात। प्रसन्नता अनुभव करो! नृत्य करो तुम्हारे मौन के साथ। इस क्षण वह मौजूद है-पर्याप्त है। क्यों मांग करनी ज्यादा की? कल अपनी फिक्र अपने आप लेगा। यह क्षण ही बहुत काफी है; क्यों नहीं जी लेते इसे! क्यों नहीं इसका उत्सव मनाते, इसे बांटते, इससे आनंदित होते? इसे बनने दो एक गान, एक नृत्य, एक कविता। इसे बनने दो सजनात्मक। तम्हारे मौन को होने दो सजनात्मक; कुछ न कुछ करो इसका।
लाखों चीजें संभव होती हैं, क्योंकि मौन से ज्यादा सृजनात्मक तो कुछ और नहीं होता है। कोई जरूरत नहीं बहत बड़ा चित्रकार बनने की, पिकासो की भांति संसार प्रसिद्ध होने की। कोई जरूरत नहीं हेनरी मूर बनने की कोई जरूरत नहीं महान कवि बनने की। महान बनने की वे महत्वाकांक्षाएं मन की होती हैं, मौन की नहीं।
अपने ढंग से चित्र बनाना, चाहे कितना ही मामूली हो। तुम्हारे अपने ढंग से हाइकू रचना, चाहे वह कितना ही साधारण हो। कितना ही सामान्य हो-तुम्हारे अपने ढंग से गीत गाना, थोड़ा नृत्य करना उत्सव मनाना। तुम पाओगे कि अगला ही क्षण ले आता है ज्यादा मौन। तम जान जाओगे कि जितना ज्यादा मनाते हो तुम उत्सव, उतना ज्यादा दिया जाता है तुम्हें; जितना ज्यादा तुम बांटते हो, उतने ज्यादा तुम सक्षम हो जाते हो ग्रहण करने में। हर क्षण वह बढ़ता है, बढ़ता ही चला जाता है।
और अगला क्षण सदा ही उत्पन्न होता है इस क्षण से, तो क्यों फिक्र करनी उसकी! यदि यह वर्तमान क्षण शांतिपूर्ण है, तो कैसे अगला क्षण अराजक हो सकता है? कहां से आएगा वह? उसे इसी क्षण से ही उत्पन्न होना होता है। यदि मैं प्रसन्न हूं इस क्षण, तो कैसे मैं अप्रसन्न हो सकता हूं अगले क्षण में?