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तुम इसे दृष्टि की शुद्धता सहित नहीं देखोगे। तुम देखोगे धारणाओं सहित, और धारणाएं प्रक्षेपित होंगी उस पर।
यदि तुम उत्पन्न होते हो किसी अफ्रीकी जाति में, तो तम सोचते हो पतले होंठ संदर नहीं होते. मोटे
ने हैं। बहत-सी अफ्रीकी जनजातियों में वे अपने होंठ मोटे और ज्यादा मोटे बनाए चले जाते हैं। वे सब प्रकार के उपाय करते हैं होंठों को ज्यादा और ज्यादा मोटे करने के लिए, विशेषकर स्त्रियां क्योंकि मोटे होंठ सुंदर होते हैं; ऐसी ही धारणा है। प्रजाति के सारे इतिहास में इस बात को कायम रखा है उन्होंने। यदि कोई लड़की पैदा होती है पतले होंठ लेकर, तो वह निम्न अनुभव करती
है।
भारत में प्रेम करते हैं पतले होंठों से। यदि वे थोड़े से ज्यादा मोटे होते हैं, तो तुम असुंदर माने जाते हो। ये विचार मन के भीतर चलते हैं और ये विचार इतनी गहरी जड़ में उतर जाते हैं कि वे तुम्हारी दृष्टि धुंधली कर देते हैं। न पतले होंठ और न ही मोटे होंठ, न तो सुंदर होते हैं और न ही असुंदर। वस्तुत: सुंदर और असुंदर विकृत अवधारणाएं हैं। वे तुम्हारी विचारधाराएं हैं, और फिर तुम उन्हें मिला देते हो वास्तविकता के साथ।
ऐसी जनजातियां अस्तित्व रखती रही हैं जो सोने को बिलकुल ही कोई मूल्य नहीं देतीं। जब वे बिलकुल कोई मूल्य नहीं करतीं सोने का, तो वे सोने के वशीभूत नहीं रहती। सारा संसार ऐसा है, सोने
द्वारा वशीभूत। मात्र एक निश्चित विचार, और सोना बहुत मूल्यवान हो जाता है। वस्तुओं के संसार में, वास्तव में, कोई चीज ज्यादा मूल्यवान या कम मूल्यवान नहीं होती है। मूल्यांकन लाया जाता है मन के द्वारा, तुम्हारे द्वारा। कोई चीज सुंदर नहीं, कोई चीज असुंदर नहीं। चीजें होती हैं जैसी वे हैं। उनकी अपनी तथाता में वे अस्तित्व रखती हैं। लेकिन जब तुम सतह पर होते हो और विचारों के साथ सम्मिलित हो जाते हो, तो तुम कहने लगते हो, 'यह मेरी धारणा है सौंदर्य की। यह मेरी धारणा है सत्य की। 'तब हर चीज मुड़-तुड़ जाती है।
जब तुम केंद्र की ओर बढ़ते हो और मन अकेला छूट जाता है, और उस केंद्र से तुम देखते हो मन को, तो तुम्हारा तादात्म्य फिर उसके साथ नहीं रहता। धीरे-धीरे सारे विचार तिरोहित हो जाते हैं। मन स्फटिक की भांति साफ हो जाता है। और उस दर्पण में, मन के त्रि-आयामी दर्पण में, संपूर्ण प्रतिबिंबित हो जाता है : विषय, व्यक्ति, ज्ञान; बोधकर्ता, बोध और बोध का विषय।
'सवितर्क समाधि, वह समाधि है, जहां योगी अभी भी वह भेद करने के योग्य नहीं रहता है, जो सच्चे ज्ञान के और शब्दों पर आधारित ज्ञान, तर्क या इंद्रिय-बोध पर आधारित ज्ञान के बीच होता है जो सब मिश्रित अवस्था में मन में बना रहता है।'