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पर बना रहता है मलिन; अब नैतिक ढंग से होता है ऐसा, पर बना रहता है मलिन। कई बार स्थिति पहले की अपेक्षा बरी भी हो जाती है।
एक अनैतिक व्यक्ति कई तरह से निर्दोष होता है, कम अहंकारी होता है। एक नैतिक व्यक्ति के मन में बहुत अनैतिकता होती है। जो नयी चीजें उसने इकट्ठी कर ली होती हैं वे हैं : नैतिक, शुद्धतावादी, अहंकारयक्त दृष्टिकोण। वह अधिक उच्च अनभव करता है। वह अनभव करता है विशेष रूप से चना हआ है और दूसरा हर कोई नर्क जाने योग्य है। केवल वही जा रहा है स्वर्ग की ओर! और सारी अनैतिकता भीतर बनी रहती है, क्योंकि तुम बाहर से नियंत्रित नहीं कर सकते मन को। कोई उपाय नहीं है। उस ढंग से यह बात होती ही नहीं है। मात्र एक नियंत्रण अस्तित्व रखता है, और वह होता है केंद्र से आया बोध।
मन वह धूल है जो लाखों-लाखों यात्राओं द्वारा इकट्ठी हो चुकी है। सामान्य नियम के विरुद्ध वास्तविक दृष्टिकोण, परम धार्मिक दृष्टिकोण है वस्त्रों को ही फेंक देना। उन्हें धोने की फिक्र मत लेना; उन्हें नहीं धोया जा सकता है। जैसे सांप अपनी पुरानी केंचुली के बाहर हो जाता है, बस उसी भांति ही सरक जाना और पीछे मुड़कर भी नहीं देखना। ठीक ऐसा ही होता है योग; कि किस प्रकार तुम्हारे व्यक्तित्व से छुटकारा हो। वे व्यक्तित्व ही होते हैं कपड़े।
यह शब्द 'व्यक्तित्व', 'पर्सनैलिटी' बहुत दिलचस्प है। यह आता है ग्रीक मूल 'पर्सेना' से। इसका अर्थ होता है वह मुखौटा, अभिनेता जिनका प्रयोग प्राचीन ग्रीक नाटक में अपने चेहरे छुपाने के लिए किया करते थे। वही मुखौटा कहलाता है पर्साना, और इसके द्वारा तुम्हारे पास व्यक्तित्व आता है। व्यक्तित्व होता है मुखौटा, तुम नहीं। व्यक्तित्व दूसरों को दिखलाने वाला एक नकली चेहरा है। और बहुत-बहुत जन्मों द्वारा और बहुत-बहुत अनुभवों के द्वारा तुमने बहुत से व्यक्तित्व निर्मित कर लिए हैं। वे सब गंदे हो चुके हैं। तुमने बहुत ज्यादा प्रयोग कर लिया है उनका, और उन्हीं के कारण अपना मौलिक चेहरा एकदम खो दिया है।
तुम नहीं जानते कि तुम्हारा मौलिक चेहरा कौन-सा है। तुम दूसरों को धोखा दे रहे हो और तुम अपने ही धोखे के शिकार हो गए हो। सारे व्यक्तित्व गिराओ, क्योंकि यदि तुम व्यक्तित्व से चिपकते हो तो तुम सतह पर ही बने रहोगे। सारे व्यक्तित्व गिरा दो, और बस स्वाभाविक हो जाओ। तब तुम बह सकते हो केंद्र की ओर। और एक बार जब तुम देखने लगते हो केंद्र से तो कोई मन नहीं बना रहता। प्रारंभ में विचार जारी रहते हैं, लेकिन धीरे – धीरे तुम्हारे सहयोग के बिना, वे कम और कम होते जाते हैं। जब तुम्हारा सारा सहयोग खो जाता है, जब तुम उनके साथ बिलकुल ही सहयोग नहीं करते, तब वे तुम्हारे पास आना बंद कर देते हैं। ऐसा नहीं है कि वे अब होते ही नहीं; वे मौजूद होते हैं वहां, लेकिन वे तुम तक नहीं पहुंचते।