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योगसूत्र: (समाधिपाद)
श्रीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृहणग्रामेषु तत्स्थतदन्जनता समापत्तिः।। 41।।
जब मन की क्रिया नियंत्रण में होती है, तब मन बन जाता है। शुद्ध स्फटिक की भांति। फिर वह समान रूप से प्रतिबिंबित करता है बोधकर्ता को, बोध को और बोध के विषय को।
तत्र शब्दार्थ ज्ञान विकल्पै: संकीर्णा सिवतर्का समापत्तिः।। 42//
सवितर्क समाधि वि समाधि है, जहां योगी अभी भी वह भेद करने के योग्य नहीं रहता है, जो सच्चे ज्ञान के तथा शब्दो पर आधारित ज्ञान, और तर्क या इंद्रिय-बोध पर आधारित ज्ञान के बीच होता है-जो सब मिश्रित अवस्था में मन में बना रहाता है।
मन क्या है? मन कोई वस्तु नहीं है, बल्कि एक घटना है। वस्तु में अपना एक तत्व होता है, घटना
तो मात्र एक प्रक्रिया है। वस्तु चट्टान की भांति होती है, घटना लहर की भांति होती है : उसका अस्तित्व होता है, तो भी वह वस्तु नहीं होती। लहर मात्र एक घटना होती है हवा और सागर के बीच की; एक प्रक्रिया, एक घटना।
यह पहली बात है समझ लेने की : कि मन एक प्रक्रिया है, लहर की भांति है या कि एक नदी की भांति है, लेकिन इसमें कोई पदार्थ नहीं होता, यदि इसमें पदार्थ होता, तो यह विलीन नहीं हो सकता था। यदि इसमें कोई पदार्थ नहीं होता तो वह तिरोहित हो सकता है एक भी चिह्न छोड़े बिना। जब लहर खो जाती है सागर में, तो क्या बच रहता है पीछे? कुछ नहीं, एक चिह्न तक नहीं। इसीलिए जिन्होंने जाना है वे कहते हैं कि मन आकाश में उड़ते पक्षी की भांति होता है-कोई एक चिह्न पीछे नहीं बचता, एक निशान भी नहीं। पक्षी उड़ता है पर पीछे कोई राह नहीं छोड़ता, कोई चिह्न नहीं छोड़ता।