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________________ और यदि तुम प्रेम में समर्पण नहीं कर सकते, तो तुम्हारे लिए बहुत कठिन होगा किसी भी अन्य ल पर समर्पण करना। सद्गुरु के प्रति भी समर्पण होता है और कोई पुरुष या कोई स्त्री कभी जितने की मांग कर सकते हैं उससे कहीं ज्यादा बड़ा समर्पण होता है। पुरुष मांग करता है तुम्हारे शरीर के समर्पण की, यदि वह तुमसे संबंधित होता है केवल कामवासना के कारण। यदि वह तुमसे प्रेम भी करता है, तब वह मांग करता है तुम्हारे मन के समर्पण की। लेकिन सद्गुरु मांग करता है तुम्हारी ही – मन, शरीर, आत्मा- तुम्हारे समग्र अस्तित्व की । उससे कम से काम न बनेगा। तीन संभावनाएं होती हैं। जब कभी तुम सद्गुरु के पास आते हो, तो पहली संभावना होती है बौ‌द्धिक रूप से उसके साथ संबंधित होने की सिर के द्वारा। वह कुछ ज्यादा नहीं। तुम्हें उसके विचार पसंद आ सकते हैं, फिर भी इसका अर्थ यह नहीं होता कि तुम उसे पसंद करते हो विचार पसंद करना, उसकी धारणाएं पसंद करना, उसे ही पसंद करना नहीं है। विचार तुम अलग रूप से ग्रहण कर सकते हो सद्गुरु के साथ किसी संबंध में जुड़ने की कोई जरूरत नहीं होती। यही घट रहा है प्रश्नकर्ता को संबंध भौतिक है; इसीलिए यह मात्र ठीक है। एक दूसरी संभावना होती है। तुम हार्दिक रूप से प्रेम में पड़ते हो, तब इसका कोई सवाल नहीं होता किं वह क्या कहता है; सवाल उसका स्वयं का ही होता है। यदि तुम बौद्धिक रूप से मुझसे संबंधित होते हो, तो कभी न कभी तुम्हें दूर जाना ही होगा। क्योंकि मैं स्वयं का खंडन करता चला जाऊंगा। हो सकता है एक विचार तुम्हें अनुकूल पड़े, दूसरा न अनुकूल पड़ता हो। यह विचार तुम पसंद करो, वह विचार तुम पसंद न करो, और मैं करता जाऊंगा स्वयं का खंडन । । और मैं स्वयं का खंडन करता हूं एक खास उद्देश्य से : मैं केवल उन्हीं लोगों को अपने चारों ओर चाहता हूं जो प्रेम में होते हों उन्हें नहीं जो कि बौद्धिक रूप से कायल होते हैं मेरे उन्हें दूर फेंक देने को मुझे निरंतर विरोधाभासी बने रहना होता है। - यह एक छंटाई होती है, एक बहुत सूक्ष्म छंटाई में कभी नहीं कहता तुमसे, 'चले जाओ। 'तुम अपने से ही चले जाते हो और तुम ठीक अनुभव करते हो कि यह आदमी विरोधाभासी था, इसलिए मैं छोड़कर चला आया। केवल वही जो कि हृदय से संबंधित होते हैं मुझसे, विरोधाभासों की फिक्र नहीं लेंगे। वे इसकी चिंता नहीं करेंगे कि क्या कहता हूं मैं। वे देखते हैं सीधे मेरी ओर। वे जानते हैं मुझे कि मैं धोखा नहीं दे सकता हूं उन्हें । वे जानते हैं मुझे प्रत्यक्ष रूप से जो मैं कहता हूं उसके द्वारा नहीं। जो मैं कहता हूं वह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। जरा भेद पर ध्यान देना. वह व्यक्ति जो कायल होता है मेरे विचारों का, मुझसे संबंधित होता है विचारों द्वारा वह व्यक्ति जो प्रेम में पड़ता है मेरे विचारों से संबंधित हो सकता है, लेकिन मेरे द्वारा ही बड़ा अंतर पड़ता है इस बात से।
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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