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तम मुझे बिलकुल ही नहीं समझे हो। तुम अपेक्षित नहीं हो मेरे प्रेमी बनने के लिए मैं अपेक्षित
नहीं हूं तुम्हारा प्रेमी बनने के लिए। लेकिन तुम्हारी तकलीफ मैं समझता हूं। तुम नहीं समझ सकते कि प्रेम कैसे संभव होता है बिना प्रेमी बने हुए। तुम कर सकते हो मुझे प्रेम बिना मेरे प्रेमी हुए ही; वह होता है उच्चतम प्रकार का प्रेम, शुद्धतम प्रेम।
इसे समझ लेना है, क्योंकि गुरु और शिष्य के बीच का संबंध इस संसार का नहीं होता। गुरु न तो तुम्हारा पिता होता है और न तुम्हारा भाई, न तो तुम्हारा पति होता है और न पत्नी, और न ही तुम्हारा बच्चा। नहीं, वे सारे संबंध जो संसार में विदयमान हैं, असंगत होते हैं गुरु और शिष्य के बीच। एक अर्थ में वह यह सब कुछ होता है, और दूसरे अर्थ में, इनमें से कुछ नहीं होता। एक खास अर्थ में वह पिता समान होता है। एक निश्चित अर्थ में वह तुम्हारे लिए एक बच्चे की भांति होता है। जब मैं कहता हूं निश्चित अर्थ में तो मेरा मतलब होता है कि वह तुम्हारे प्रति पिता समान होगा, यद्यपि वह शायद उम्र में तुमसे ज्यादा बड़ा न भी हो। वह बहुत युवा हो सकता है, तो भी एक निश्चित अर्थ में वह पितृवत होगा तुम्हारे प्रति क्योंकि वह देता है और तुम ग्रहण करते हो और क्योंकि वह ऊंचे शिखर पर रहता है और तुम घाटी में रहते हो। आयु की दृष्टि से वह शायद तुमसे वृद्ध न हो, लेकिन शाश्वत रूप से वह असीमित रूप से ज्यादा बड़ा होता है तुमसे। और एक निश्चित अर्थ में वह बिलकुल एक बच्चे की भांति होगा तुम्हारे लिए, क्योंकि वह फिर से बच्चा हो गया है। वह संबंध, बहुत सारी चीजों से भरा है। बहुत जटिल। वह तुम्हारा पति नहीं हो सकता क्योंकि वह तुम पर नियंत्रण नहीं रख सकता, और वह तुम्हारे नियंत्रण में हो नहीं सकता। लेकिन एक खास अर्थ में वह पतिवत होता है। तम्हारा मालिक होने की जरा भी उसकी कामना के बिना तम उससे आविष्ट हो जाते हो। उसकी ओर से कोई प्रयास हुए बिना तुम्हारा भाव हो ही जाता है प्रेमिका का। क्योंकि गुरु और शिष्य के बीच ऐसा ही संबंध होगा कि शिष्य को स्त्रैण होना ही होता है, क्योंकि शिष्य ग्रहणकर्ता होता है और उसे रहना होता है खुला। वस्तुत: गुरु के साथ उसे गर्भधारी होना होता है। केवल तभी संभव होगा पुनर्जन्म।
एक दूसरे निश्चित अर्थ में गुरु पत्नी की भांति होता है क्योंकि इतना मृदु, इतना स्नेही होता है वह। उसके जीवन में सारे नुकीले कोने तिरोहित हो चुके होते हैं। वह बन गया होता है अधिकाधिक वर्तुल
और वर्तुल अपने शरीर में भी, अपने अस्तित्व में भी, वह अधिक स्त्रीत्वमय होता है। इसीलिए बुद्ध ज्यादा स्त्रीत्वपूर्ण जान पड़ते हैं।
नीत्से ने बुद्ध की आलोचना केवल इसी कारण की है : कि वे स्त्रैण पुरुष थे। नीत्से ने कहा कि बुद्ध ने निर्मित की थी भारत की सारी स्त्रैणता, क्योंकि नीत्से के विचार से, पुरुष शक्तिपूर्ण तत्व है और स्त्री का अर्थ है दुर्बलता। एक खास अर्थ में वह ठीक ही कहता है।