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तो शरीर कोशिश कर रहा होता है तुम्हारा ध्यान भंग करने की ऐसा स्वाभाविक है, क्योंकि इतने लंबे समय से शरीर के पास सत्ता बनी रही है। बहुत जन्मों से यह बना रहा सम्राट और तुम बने रहे गुलाम । अब तुम बदल रहे हो- हर चीज उलट-पुलट गयी है। तुम अपने सिंहासन को वापस ले रहे होते हो। ऐसा स्वाभाविक है कि तुम्हारी शाति भंग करने को जो कुछ किया जा सकता है वह कुछ करना ही चाहिए शरीर को यदि तुम अशात हो जाते हो, तो तुम भटक जाते हो। साधारणतया लोग इन चीजों को दबा देते हैं। वे जप करने लगेंगे किसी मंत्र का वे नहीं ध्यान देंगे शरीर पर
मैं तुम्हें किसी प्रकार का दमन नहीं सिखा रहा हूं। मैं सिखाता हूं केवल जागरूकता । तुम मात्र देखो, ध्यान दो। क्योंकि वह झूठ है, तुरंत तिरोहित हो जायेगा वह जब सारी पीड़ाएं और खुजलाहटें और चींटियां गायब हो चुकी होती हैं और शरीर गुलाम होने के अपने सही स्थान पर जा बैठा होता है, तो अकस्मात इतना आनंद उमगने लगता है कि तुम उसको अपने में समा नहीं सकते हो। अचानक इतना अधिक उत्सव उमड़ने लगता है तुम्हारे भीतर कि तुम उसे अभिव्यक्त भी नहीं कर सकते; उमड़ने लगती है कहीं पार की समझ की शाति, उमडूने लगता है एक आनंद जो कि इस संसार का
नहीं होता।
चौथा प्रश्न :
कल प्रेम के बारे में बोलते हुए आपने कहा कि यह एक आधारभूत आवश्यकता है जिसकी परिपूर्ति करने का प्रयत्न हमें करना चाहिए। आपने यह भी बताया कि यह फिर-फिर दुख ले आता है तो कैसे कोई अर्थपूर्ण ढंग से जी सकता है यदि प्रेम को पूर्ण करने के हमारे प्रयत्नों का अंत सदा दुख पर ही होना होता है?
तुम्हारे सारे प्रयत्नों का अंत सदा दुख पर होता है। केवल प्रेम की और किये गये प्रयत्नों का ही
नहीं, बल्कि तुम्हारे सारे प्रयत्नों का ही अप्रतिबंध रूप से अंत होता है दुख में, क्योंकि सारे प्रयत्न आ है अहंकार से कोई प्रयत्न सफल होने वाला नहीं, क्योंकि कर्ता ही सारे दुखों का मूल है। यदि तुम प्रेम कर सकते हो बिना प्रेमी के वहां मौजूद हुए तो कहीं कोई दुख न होगा।
बिना प्रेमी की मौजूदगी के प्रेम में होना बहुत - बहुत कठिन जान पड़ता है। प्रेम करने वाला' उत्पन्न करता है दुख को, प्रेम नहीं। प्रेमी वे चीजें शुरू करता है जो समाप्त होती हैं नरक में। सारे प्रेमी असफल होते हैं, और मैं किसी अपवाद की नहीं कहता, केवल प्रेम कभी असफल नहीं होता। इसलिए