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क्योंकि तुम प्रभावित हो जाते हो, क्योंकि तुम सम्मोहित हो जाते हो। ऐसा बहुत कठिन है, क्योंकि ऐसे तर्कसंगत व्यक्ति मौजूद हैं जो कि तुम्हें विश्वसनीय ढंग से प्रभावित कर देते हैं। यह बहुत कठिन है। बहुत सुंदर लोग हैं वे; उनकी सुंदरता प्रभावित करती है तुम्हें। चारों ओर बहुत बढ़िया लोग हैं, वे चुंबकीय रूप से आकर्षक हैं, उनके पास बड़ा आकर्षण है। जब तुम उनके आसपास होते हो, तो तुम खींच ही लिए जाते हो, उनके पास गुरुत्वाकर्षण होता है।
तुम्हें सचेत रहना पड़ता है, महान व्यक्तियों के प्रति ज्यादा सचेत, उनके प्रति ज्यादा सचेत जिनके पास चुंबकीय आकर्षण है, उनके प्रति ज्यादा सचेत जो प्रभावित कर सकते हैं। वे प्रभावित कर सकते हैं, और तुम्हें बदल सकते हैं, क्योंकि वे तुम्हें दे सकते हैं अशुद्धता। ऐसा नहीं है कि वे तुम्हें देना ही चाहते हैं उसे, किसी बुद्ध पुरुष ने कभी नहीं चाहा है किसी को अपने जैसा बनाना। वे नहीं चाहते ऐसा, लेकिन तुम्हारा अपना मूढ़ मन ही अनुकरण करना चाहेगा, किसी दूसरे को आदर्श बना लेना चाहेगा और उसके जैसा होने का प्रयास करेगा। यही है सबसे बड़ी अशुद्धता जो कि घट सकती है किसी व्यक्ति को।
प्रेम करो बुद्ध से, जीसस से, रामकृष्ण से, उनके अनुभवों द्वारा समृद्ध बनो, पर प्रभावित मत हो जाना। ऐसा बहुत कठिन होता है, क्योंकि भेद बहुत सूक्ष्म है। प्रेम करो, सुनो, आत्मसात करो, पर अनुकरण मत करो। ग्रहण करो जो कुछ तुम ग्रहण कर सकते हो, लेकिन सदा ग्रहण करना तुम्हारे स्वभाव के अनुसार। यदि कोई चीज अनुरूप बैठती हो तुम्हारे स्वभाव के तो ले लेना उसे–मगर इसलिए नहीं कि बुद्ध कहते हैं वैसा करने को।
बुद्ध फिर-फिर याद दिलाते अपने शिष्यों को, 'कोई चीज मत मान लेना क्योंकि मैं कहता है। मानना तो केवल इसलिए यदि तुम्हें उसकी जरूरत हो तो, यदि तुम उस स्थान तक पहुंच गए जहां कि वह तुम्हारे लिए स्वाभाविक हो।' बुद्ध, बुद्ध बनते हैं लाखों-लाखों जन्मों द्वारा, शुभ और अशुभ के, पाप और पुण्य के, नैतिकता और अनैतिकता के, दुख और सुख के लाखों अनुभवों द्वारा। स्वयं बुद्ध को गुजरना पड़ता है लाखों जन्मों से और लाखों अनुभवों से। और क्या चाहते हो तुम? बुद्ध को सुनने मात्र से, उनके द्वारा प्रभावित हो जाने से, तुम तुरंत छलांग लगाते हो और उनका अनुकरण करने लगते हो! वैसा संभव नहीं है। तुम्हें तुम्हारे अपने मार्ग से ही चलना होगा। जो कुछ तुम ले सकते हो, ले लेना, लेकिन हमेशा बढ़ना तुम्हारे अपने मार्ग पर ही।
मुझे सदा याद आ जाती है फ्रेडरिक नीत्शे की किताब 'दस स्पेक जरथुस्त्र।' जब जरथुस्त्र अपने शिष्यों से विदा ले रहे थे। जो अंतिम बात उन्होंने कही, बड़ी सुंदर थी। वह अंतिम संदेश था; वे कह चुके थे हर बात। उन्होंने अपना संपूर्ण हृदय दे दिया था उन्हें और जो अंतिम बात कही, वह थी, ' अब सुनो मुझे और ऐसी गहराई से सुनो जैसा तुमने कभी न सुना हो। मेरा अंतिम संदेश है: जरथुस्त्र से सावधान रहना! मुझसे सावधान रहना।'