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________________ ज्ञान : अप्रत्यक्ष होता है, सम्यक अनुभूति प्रत्यक्ष होती है। ज्ञान आता है बहुत सारें माध्यमों द्वारा; वह विश्वसनीय नहीं होता है। सम्यक अनुभूति प्रत्यक्ष होती है, बिना किसी माध्यम के केवल सम्यक अनुभूति भरोसे की हो सकती है। इस भेद को याद रख लेना है। ज्ञान तो ऐसा है जैसे कि जब कोई संदेशवाहक आता हो और कुछ कहता हो तुमसे हो सकता है संदेशवाहक ने कुछ गलत समझ लिया होगा संदेश, हो सकता है संदेशवाहक ने संदेश में कुछ अपने से जोड़ दिया हो, संदेश वाहक ने शायद कुछ हटा दिया हो संदेश में से, संदेशवाहक शायद भूल गया हो संदेश की कोई बात; संदेशवाहक ने शायद कोई अपनी ही व्याख्या जोड़ दी हो उसमें; या फिर शायद संदेशवाहक एकदम चालाक हो और भ्रमपूर्ण हो। और तुम्हें विश्वास करना पड़ता है संदेशवाहक पर। संदेश के स्रोत तक तुम्हारी कोई सीधी पहुंच नहीं होती है - यह होता है ज्ञान ज्ञान भरोसे का नहीं होता है। केवल एक ही संदेशवाहक नहीं जुड़ा होता है जान के साथ, बल्कि चारचार जुड़े होते हैं। आदमी बहुत सारे बंद द्वारों के पीछे कैद रहता है। पहले तो ज्ञान आता है जानेंद्रियों तक, फिर जानेंद्रिया उसे वहन करतीं नाड़ी तंत्र द्वारा, वह पहुंच जाता है मस्तिष्क तक, फिर मस्तिष्क उसे पहुंचा देता है मन तक, और मन उसे पहुंचा देता है तुम तक, चेतना तक। यह एक बड़ी प्रक्रिया होती है, और तुम्हारे पास ज्ञान के स्रोत तक कोई सीधी पहुंच है नहीं। ऐसा हुआ कि द्वितीय महायुद्ध में, एक सिपाही के पैर और उसकी उंगलियों में बहुत गहरी चोट आयी थी, और पैर के अंगूठे में बहुत गहन पीड़ा थी इतनी ज्यादा थी पीड़ा कि वह सिपाही बेहोश हो गया। शल्य – चिकित्सकों ने पूरी टांग का आपरेशन करने का निश्चय किया। वह इतनी टूट-फूट गयी थी कि उसे बचाया नहीं जा सकता था, इसलिए उन्होंने उसे काट दिया। सिपाही बेहोश था इसलिए उसे बिलकुल पता ही नहीं चला कि क्या हुआ। अगली सुबह जब सिपाही को होश आया, तो फिर उसने अपने पैर के अंगूठे के दर्द के बारे में शिकायत की। अब जब कि टांग रही ही नहीं, जब अंगूठे सहित पूरी टांग ही काट दी गई थी, तो यह बात बेतुकी हुई। उस अंगूठे में कैसे दर्द बना रह सकता है, जो है ही नहीं? नर्स हंस पड़ी और बोली, 'तुम कल्पना कर रहे हो या तुम्हें भ्रम हो रहा है।' उसने चादर उतार दी उसकी, और दिखा दिया सिपाही को कि उसकी पूरी टांग निकाल दी गयी है, इसलिए अब पैर के अंगूठे में कोई दर्द नहीं बना रह सकता, क्योंकि पैर का ही अस्तित्व नहीं है। लेकिन सिपाही अड़ा रहा अपनी बात पर वह बोला, 'मैं देख सकता हूं कि टांग है ही नहीं और मैं समझ सकता हूं तुम्हारे मन का विचार में बेतुका लग रहा हूं लेकिन मैं फिर भी कहता हूं कि दर्द बहुत तेज है और बरदाश्त के बाहर है।"
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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