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अनावश्यक संघर्ष निर्मित कर लेने की। यह बात समझ लेनी है, क्योंकि यदि तुम मन को वही विषय देते हो जो उसे आकर्षित करते हों तो मन के पास स्वाभाविक क्षमता होती है ध्यान करने की।
जैसे किसी छोटे से विद्यालय में, एक बच्चा वृक्षों पर चहचहाते पक्षियों को सुनता है। और वह एकदम सुन रहा होता है, वह सुनने में विभोर होता है, वह संपर्क में होता है। वह भूल चुका होता है शिक्षक को, वह भूल जाता है कक्षा को। वह अब वहां नहीं रहा; वह आनंदमग्न ध्यान में है। ध्यान घट गया है। और फिर शिक्षक कहता है, 'क्या कर रहे हो तुम? क्या तुम सोये हुए हो? यहां एकाग्रता लाओ बोर्ड पर। 'अब बच्चे को कोशिश करनी पड़ती है, प्रयास करना पड़ता है। उन पक्षियों ने तो बच्चे से कभी न कहा था कि 'देखो, हम यहां चहचहा रहे हैं। एकाग्र हो जाओ। 'यह तो बस घटता है। क्योंकि बच्चे के लिए इसमें एक गहन आकर्षण था। ब्लैकबोर्ड इतना असुंदर लगता है और शिक्षक लगता है हत्यारा। सारी बात ही जबरदस्ती की होती है। वह करेगा कोशिश लेकिन प्रयत्न दवारा तो कोई नहीं कर सकता ध्यान। फिर-फिर सरकेगा मन। तो कमरे के बाहर बहुत सारी चीजें घटित हो रही होती हैं अचानक कोई कुत्ता भौंकने लगता है, या कि कोई भिखारी गुजर जाता है गाना गाते हुए या कोई बजा रहा होता है गिटार। बहुत सारी लाखों चीजें बाहर घटित हो रही होती हैं। लेकिन उसे बार-बार अपना ध्यान लाना पड़ता है ब्लैकबोर्ड पर ही, विद्यालय की कक्षा के असुंदर कमरे कीईं ओर ही।
हमने स्कूल बना दिये हैं कैदखानों की भांति ही। भारत में स्कूल की इमारतों और जेल की इमारतों का रंग एक ही होता है-लाल। स्कूलों के कमरे होते हैं असुंदर। कोई आकर्षक चीज नहीं होती वहांकोई खिलौने नहीं, संगीत नहीं, वृक्ष नहीं, पक्षी नहीं-कुछ नहीं। स्कूल का कमरा होता है तुम्हारे ध्यान पर जबरदस्ती करने के लिये। तुम्हें सीखना पड़ता है एकाग्र होना।
और यही है भेद एकाग्रता और ध्यान के बीच-एकाग्रता एक जोर-जबरदस्ती की बात है, ध्यान स्वाभाविक होता है। पतंजलि कहते हैं, 'साथ ही किसी उस चीज पर ध्यान करना जो तम्हें आकर्षित करती हो' -तब तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व सहज भाव से प्रवाहित होने लगता है। जरा अपनी प्रेमिका के चेहरे की ओर देखना। उसकी आंखों में देखना, ध्यान करना।
साधारणत: धार्मिक शिक्षक तो कहेंगे – 'क्या कर रहे हो तुम? क्या यह ध्यान हुआ?' वे तुम्हें सिखाते हैं कि जब तुम ध्यान कर रहे होते हो, तो अपनी प्रेमिका के विषय में मत सोचना। वे सोचते हैं : वह एक ध्यान भंग है। और यह एक सूक्ष्म बात है समझ लेने की सृष्टि में विक्षेप कहीं नहीं होता। यदि तुम अस्वाभाविक प्रयास करते हो तब घटित होते हैं विक्षेप-तुम निर्मित करते हो उन्हें। तुम्हारा सारा अस्तित्व चाहेगा देखना तुम्हारी पत्नी को, पति को, बच्चे के चेहरे को और धार्मिक शिक्षक कहते हैं'यह मोह है, यह विक्षेप है। तुम मंदिर जाओ और चर्च जाओ और ध्यान लगाओ क्रॉस पर। 'तम ध्यान करते हो क्रॉस पर तो भी फिर-फिर ध्यान में आती है तुम्हारी प्रेमिका। अब प्रेमिका का चेहरा बन जाता है चित्त को आकर्षित करने वाला। ऐसा नहीं है कि वह चित्त को विचलित करने वाला होता है। क्रॉस पर ध्यान करने में कोई खास बात नहीं होती है; तुम बस मूढ़ मालूम होते हो। क्या जरूरत