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विपरीत है। जब तुम 'कोई नहीं' हो जाते हो तब संबोधि घटित होती है। संबोधि का अर्थ है बुद्धत्व। यदि तम 'कोई हो तो संबोधि कभी घटित न होगी। यह 'कोई-ह-पन' ही बाधा है।
जब तुम अनुभव करते हो कि तुम 'कोई' नहीं, जब तुम अनुभव करते हो कि तुम 'कुछ' नहीं, तब अचानक तुम सुलभ हो जाते हो बहुत से रहस्यों के तुममें घटित होने के लिए। तुम्हारे
द्वार खुले हैं। सूर्योदय हो सकता है, सूर्य की किरणें तुम्हारे भीतर उतर सकती हैं। तुम्हारी उदासी, तुम्हारा अंधेरा विलीन हो जायेगा। लेकिन तुम बंद हो। हो सकता है सूरज तुम्हारा द्वार खटखटा रहा हो, लेकिन वहां कोई खुलापन नहीं है; एक खिड़की तक नहीं खुली है।
आस्तिक या नास्तिक, हिंदू या मुसलमान, ईसाई या बौद्ध इस मार्ग पर प्रवेश नहीं कर सकते। वे विश्वास करते हैं। वे पहुंच ही चुके हैं, बिना कहीं पहुंचे हुए! उन्होंने निर्णय ले लिया है बिना किसी बोध के। उनके मन में हैं-शब्द, धारणाएं सिदधांत और शाख। और जितना अधिक बोझ होता है विचारों का, उतने ही वे मरदा होते जाते हैं।
चौथा प्रश्न:
आपने कहा कि योग किसी आस्था की मांग नहीं करता। लेकिन यदि प्रारंभिक शर्त के स्वप्न में शिष्य को निष्ठा समर्पण और गुरु में भरोसा करने की आवश्यकता हो, तब वह पहला कथन कैसे तर्कसंगत बनता है?
मै
ने कभी नहीं कहा कि योग निष्ठा की मांग नहीं करता। मैंने कहा कि योग किसी
विश्वास की मांग नहीं करता। निष्ठा बिलकुल अलग चीज है, श्रद्धा बिलकुल अलग चीज है। विश्वास एक बौद्धिक चीज है, लेकिन आस्था एक बहुत गहरी आत्मीयता है। यह बौद्धिक नहीं है। यदि तुम गुरु से प्रेम करते हो, तब तुम आस्था करते हो और श्रद्धा होती है। लेकिन यह आस्था किसी धारणा में नहीं है। आस्था उस व्यक्ति में है। और यह शर्त नहीं है, यह अपेक्षित नहीं है, इस भेद को ध्यान में रखना। यह जरूरी नहीं कि गुरु में तुम्हारी आस्था होनी ही चाहिए, यह कोई पूर्व-शर्त नहीं है। जो कहा गया वह यह है यदि गुरु और तुम्हारे बीच श्रद्धा घटित हो जाती है, तब -सत्संग संभव हो जायेगा। यह केवल एक स्थिति है, शर्त नहीं। अपेक्षित कुछ नहीं है।
जैसा प्रेम में होता है वैसा ही है यह। यदि प्रेम हो जाता है तो बाद में विवाह हो सकता है, लेकिन तुम प्रेम को एक शर्त नहीं बना सकते। तुम नहीं कह सकते कि पहले तुम्हें प्रेम करना ही