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तुम शिष्यत्व के सौदर्य को खो देते हो। यदि तुम पहले ही कुछ जानते हो, वह जानना तुम्हें अहंकार को, वह तुम्हे विनम्र नहीं बनायेगा । इसीलिए पंडित और विद्वान चूक जाते हैं। कई बार पापी पहुचे हैं लेकिन विद्वान कभी नही। वे बहुत ज्यादा जानते हैं। वे बहुत चालाक हैं। उनकी चालाकी उनकी बीमारी है, वह आत्म घातक बन जाती है। वे सुनेगे नहीं, क्योंकि वे सीखने को राजी नहीं है। शिष्यत्व का सीधा अर्थ है- सीखने का भाव पल-पल सचेत रहना कि तुम नहीं जानते। यह जानना कि तुम नही जानते, यह सजगता कि तुम अज्ञानी हो, तुम्हें एक खुलापन देती है तब तुम बंद नहीं रहते। जिस घडी तुम कहते हो'मैं जानता हूं, तुम बंद घेरे होते हो। द्वार अब खुला नहीं है लेकिन जब तुम कहते हो, 'मैं नहीं जानता', इसका अर्थ है, तुम सीखने को राजी हो इसका अर्थ है, द्वार खुला है।
यदि तुम पहुच ही चुके हो, निष्कर्ष निकाल चुके हो, तो तुम शिष्य नहीं हो सकते। इसके लिए तो ग्रहणशील होना पड़ता है। लगातार सचेत रहना होता है कि सत्य अज्ञात है और जो कुछ भी तुम जानते हो सतही है, बिलकुल कूड़ा-करकट है तुम जानते क्या हो? हो सकता है तुमने बहुत-सी सूचनाएं इकट्ठी कर ली हो लेकिन वह ज्ञान नहीं है। हो सकता है विश्वविद्यालयों द्वारा तुमने काफी धूल जमा कर ली हो लेकिन वह ज्ञान नहीं है। तुम बुद्ध के विषय में जान सकते हो, तुम जीसस के बारे में जान सकते हो, लेकिन वह ज्ञान नहीं है। जब तक तुम बुद्ध न हो जाओ, कोई ज्ञान नही । जब तक कि तुम स्वयं एक जीसस न हो जाओ; ज्ञान फलित नहीं होता ।
ज्ञान अंतस सत्ता से आता है, स्मृति द्वारा नही तुम्हारी स्मृति प्रशिक्षित हो सकती है, लेकिन स्मृति तो मात्र एक यंत्र रचना है। यह तुम्हें कोई समृधु स्व-सत्ता नही देगी। यह तुम्हे बुरे सपने दे सकती है, लेकिन यह तुम्हे अधिक समृद्ध स्व-सत्तान देगी। तुम वैसे ही बने रहोगेबहुत-सी धूल से ढंके हुए। ज्ञान और विशेषकर वह अंहकार, जो ज्ञान के साथ चला आता है, वह धारणा कि मैं जानता हूं तुम्हें बंद करती है। अब तुम शिष्य नहीं हो सकते। और यदि तुम शिष्य नहीं हो सकते तो तुम योग के अनुशासन मे, प्रवेश नहीं कर सकते। इसलिए योग के द्वार पर आओ अज्ञानी होकर अपने अज्ञान के प्रति जागरूक होकर यह होश रख कर कि तुम नहीं जानते। और मैं तुमसे कहूंगा कि केवल यही जानना है जो मदद कर सकता है : यह बोध कि 'मैं नहीं जानता'।
यह तुम्हें विनम्र बनायेगा। एक सूक्ष्म विनम्रता आ जायेगी तुममें अहंकार धीरे- धीरे विलीन होता जायेगा। यह जानते हुए कि तुम नहीं जानते, तुम अहंकारी कैसे हो सकते हो? ज्ञान सबसे सूक्ष्म भोजन है अहंकार के लिए तुम अनुभव करते हो कि तुम कुछ हो। तुम जानते हो, इसलिए तुम विशिष्ट हो जाते हो।
अभी दो दिन पहले पश्चिम से आयी एक युवती को मैंने संन्यास में दीक्षित किया। मैंने उसे नाम दिया 'योग संबोधि और उससे पूछा कि इसका उच्चारण करना सरल तो होगा न! उसने कहा 'हां, यह तो बिलकुल अंग्रेजी के शब्द 'समबडी' जैसा लगता है।'
लेकिन संबोधि इसके बिलकुल