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नहीं। फिर भी मैं ग्रहण करता हूं मदद, जो ज्यादा सुंदर है। और मैं रहा हूं एकाकी, एक बिना घर का बंजारा-सीखता,आगे बढ़ता, घूमता कहीं एक स्थान पर न रुकता। अत: मेरे ऊपर कोई नहीं जिससे मैं आदेश पाऊं। यदि मुझे कुछ खोजना होता,तो मुझे स्वयं ही खोजना पड़ता। बहुत मदद मौजूद थी, लेकिन मुझे स्वयं श्रमपूर्वक उसका हल निकालना पड़ता था। और एक तरह से वही बड़ी मदद बन जाने वाली है क्योंकि तब मैं निर्भर नहीं करता किसी नियमावली पर। मैं शिष्यों पर ध्यान देता हूं। कोई नहीं है मेरा गुरु जिस पर मैं निर्भर रहूं। मुझे शिष्य की ओर ज्यादा गहराई से देखना पड़ता है कोई सूत्र पा लेने को। कौन-सी चीज मदद देगी तुम्हें, इसके लिए मुझे तुममें झांकना पड़ता
इसीलिए मेरी उपदेशना, मेरी विधियां, हर शिष्य के साथ अलग हैं। मेरे पास कोई सार्वभौमिक, सार्वकालिक फार्मूला नहीं है। मेरे पास हो नहीं सकता। कोई बिना किसी मूलाधार के मुझे ही उत्तर देना पड़ता है। मेरे पास पहले से ही तैयार बना-बनाया कोई अनुशासन नहीं है। बल्कि एक विकसित होने वाली घटना है। प्रत्येक शिष्य इसमें कुछ जोड़ देता है। जब मैं नये शिष्य के साथ कार्य करना शुरू करता हूं तो मुझे उसमें झांकना पड़ता है, खोजना पड़ता है, पता लगाना होता है कौन-सी चीज उसे मदद देगी, कैसे वह विकसित हो सकता है। और हर बार हर शिष्य के साथ, एक नयी नियमावली उत्पन्न हो जाती है।
तुम सचमुच बड़ी उलझन में पड़ने वाले हो मेरे जाने के बाद-क्योंकि हर शिष्य की ओर से इतनी ज्यादा कहानियां होंगी और तुम कोई ताल-मेल नहीं बना पाओगे, कोई ओर-छोर इसमें से नहीं बना पाओगे। क्योंकि मैं हर व्यक्ति से बोल रहा हूं एक व्यक्ति के रूप में। पद्धति उसके द्वारा ही निर्मित हो रही है। और यह विकसित हो रही है बहुत-बहुत दिशाओं में। यह एक विशाल वृक्ष है। बहुत सारी शाखाएं हैं, जो समस्त दिशाओं में जा रही ?
मैं कोई निर्देश गुरुओं द्वारा ग्रहण नहीं करता। मैं निर्देश ग्रहण करता हूं तुमसे ही। जब मैं तुममें झांकता हूं तुम्हारे अचेतन में, तुम्हारी गहराई में, मैं वहां से निर्देश पाता हूं और मैं इसे कार्यवन्तित करता हूं तुम्हारे लिए। यह सदा ही नया उत्तर होता है।
दूसरा प्रश्न:
गुरुओं को किसी प्रधान गुरु द्वारा निर्देश पाने की आवश्यकता क्यों होती है? जब वे संबोधि प्राप्त कर लेते हैं तो क्या वे स्वयं में काफी नहीं होते? क्या सम्बोधि की भी अवस्थाएं होती हैं?