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ईश्वर सर्वोत्कृष्ट है। वह दिव्य चेतना की वैयक्तिक इकाई है। वह जीवन के दुखों से तथा कर्म और उसके परिणाम से अछूता है।
तत्र निरतिशयं सर्वजवीजम् ।। 29||
ईश्वर में बीज अपने उच्चतम विस्तार में विकसित होता है।
तीन
न प्रकार के खोजी होते हैं। पहले प्रकार के तो मार्ग पर कुतूहल के कारण आते हैं।
पतंजलि उन्हें कहते हैं कुतूहली इस प्रकार का व्यक्ति वास्तव में उत्सुक नहीं होता। वह तो जैसे किसी दुर्घटनावश आध्यात्मिकता में वह आया होता है। उसने कुछ पढ़ लिया होगा। हो सकता है उसने किसी को कुछ कहते हुए सुन लिया हो - परमात्मा के बारे में, सत्य के बारे में, परम मुक्ति के बारे में, और वह आकृष्ट हो गया हो। यह अभिरुचि बौदधिक होती है, एक बच्चे की रुचि की भांति ही जो हर किसी चीज में रस लेता है और फिर कुछ समय बाद दूर हो जाता है उससे, क्योंकि और ज्यादा कुतूहल सदा उसके लिए द्वार खोल रहे हैं।
ऐसा आदमी कभी न पायेगा । कुतूहल से तुम सत्य को नहीं पा सकते हो क्योंकि सत्य के लिए सतत प्रयास की आवश्यकता होती है एक निरंतरता की, एक स्थायित्व की ये बातें कुतूहल भरे व्यक्ति के पास नहीं हो सकती। एक कुतूहल से भरा व्यक्ति अपनी मनःस्थिति के अनुसार कोई निश्चित बात कर सकता है, एक निश्चित समय के लिए, लेकिन फिर उसमें एक अंतराल आ जाता है और उसी अंतराल में वह सब जो उसने किया खो जाता है, नष्ट हो जाता है फिर वह शुरू करेगा एकदम प्रारंभ से और फिर वही घटित होगा।
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वह परिणाम की फसल प्राप्त नहीं कर सकता। वह बीज बो सकता है, लेकिन वह प्रतीक्षा नहीं कर सकता क्योंकि लाखों नयी दिलचस्पिया उसे हमेशा बुला रही होती हैं। वह दक्षिण में है, फिर वह पूरब की ओर बढ़ता है, फिर वह पश्चिम की ओर जाता है, फिर उत्तर की तरफ वह लकड़ी की भांति है जो सागर में इधर-उधर बह रही है। वह कहीं नहीं जा रहा, उसकी ऊर्जा किसी निश्चित लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ रही। जो भी परिस्थितियां उसे धकेलती हैं वह उन्हीं के अनुसार चलता है। वह सांयोगिक है। और सांयोगिक व्यक्ति परमात्मा को नहीं पा सकता। और जहां तक क्रियात्मक होने की बात है वह शायद बहुत कुछ कर ले, लेकिन यह सब व्यर्थ है क्योंकि दिन में वह