________________ तुम तुम्हारा अपना एक हिस्सा रोके रहते हो सिर्फ सावधानी से देखने के लिए ही कि यह आदमी कहां ले जा रहा है। मेरे पास लोग आते हैं और वे कहते हैं, 'हम सतर्कता से देख रहे हैं। पहले हमें देखने दें कि क्या घट रहा है।' वे बहुत चालाक हैं-नासमझ चालाक-क्योंकि ये चीजें बाहर से नहीं देखी जा सकती। जो घट रही है वह आंतरिक घटना है। कई बार तुम देख भी नहीं सकते कि किसे यह घट रही है। बहुत बार केवल मैं देख सकता हूं जो घट रहा है। तुम बाद में ही सजग होते हो उसके प्रति, जो घटित हुआ है। दूसरे नहीं देख सकते। बाहर से कोई संभावना नहीं देखने की। कैसे तुम बाहर से देख सकोगे गु: शारीरिक मुद्रा तुम देख सकते हो। लोग ध्यान कर रहे हैं, यह तुम देख सकते हो। लेकिन जो अंदर घटित हो रहा है वह ध्यान है। जो वे बाहर कर रहे हैं वह केवल स्थिति का निर्माण करना है। ऐसा हुआ कि एक बहुत बड़ा सूफी गुरु था, जलालुद्दीन। उसका एक छोटा-सा विद्यालय था अनूठे शिष्यों का। वे अनूठे थे क्योंकि वह बहुत ध्यान से चुनने वाला गुरु था। जब तक कि उसने उसे चुन ही न लिया हो, वह किसी को न आने देता। उसने बहुत थोड़े लोगों पर काम किया, लेकिन जो लोग वहां से गुजरते, कई बार उसे देखने आ जाते जो वहां घटित हो रहा था। एक बार लोगों की एक टोली आयी-कुछ प्रोफेसर थे। वे हमेशा बड़े सजग लोग होते हैं, बड़े चालाक। और उन्होंने देखा। गुरु के घर में, अहाते में ही, पचास लोगों का समूह बैठा हुआ था, और वे पागलों जैसी मुद्राएं बना रहे थे। कोई हंस रहा था, कोई रो-चीख रहा था, कोई कूद रहा था। प्रोफेसर लोग देखते रहे। वे बोले, 'क्या हो रहा है? यह आदमी उन्हें पागलपन की ओर ले जा है। वे पागल ही हैं और वे मर्ख हैं क्योंकि एक बार कोई पागल हो जाता है तो वापस लौटना कठिन होता है। और यह तो बिलकुल मूर्खता हो गयी। हमने इस तरह की बात कभी नहीं सुनी। जब लोग ध्यान करते हैं, वे शांतिपर्वक बैठते हैं।' और उनके बीच बहुत विवाद हुआ। उनके एक वर्ग ने कहा, 'चूंकि हम नहीं जानते क्या घट रहा है, तो कोई निर्णय देना अच्छा नहीं है। 'फिर उनमें लोगों का एक तीसरा वर्ग था जो बोला, 'जो कुछ भी हो, यह आनंददायक है। हम देखना चाहेंगे। यह सुंदर है। हम क्यों नहीं इसका आनंद ले सकते' जो वे कर रहे हैं उसकी क्यों फिक्र करें? उन्हें देखना भर ही इतना सुंदर है।' कुछ महीनों बाद, फिर वही टोली आश्रम में आयी देखने को। अब क्या हो रहा था? हर कोई मौन था। पचास व्यक्ति वहां थे, गुरु था वहां। वे शांति से बैठे हए थे-इतने मौनपूर्वक, जैसे कि वहां कोई था ही नहीं। वे मूर्तियों की भांति थे। फिर बहस छिड़ी। उनका एक वर्ग था जो कहने लगा, अब वे बेकार हैं। देखने को है क्या? कुछ नहीं। पहली बार हम आये थे तो यह संदर था। हमने इसका मजा लिया। लेकिन अब वे सिर्फ ऊबाऊ है।. दूसरा वर्ग बोला, 'पर लगता है कि वे ध्यान कर रहे हैं।