________________ बात, तुम्ही हो उद्गम। दूसरी बात, तुम्हें जानना पड़ता है कि यह उद्गम है क्या। पहले इतना भर काफी है कि तुम अपनी प्रसन्नता के उद्गम हो। और दूसरी बात है, तुम्हें जानना होता है कि यह स्रोत अपनी समग्रता में क्या है। यह पुरुष, आंतरिक आत्मा क्या है! मैं कौन हूं समग्र रूप में। एक बार तुम इस उद्गम को इसकी समग्रता में जान लेते हो, तो तुमने सब जान लिया होता है। तब केवल प्रसन्नता ही नहीं. सारा ब्रह्मांड भीतर ही होता है। केवल प्रसन्नता ही नहीं, तब वह सब जिसका अस्तित्व है, भीतर वास करता है। तब ईश्वर कहीं बादलों में नहीं बैठा हुआ होता है, वह भीतर विद्यमान होता है। तब तुम उद्गम होते हो, सबके मूल-स्रोत। तब तुम्हीं केंद्र होते हो। __ और एक बार तुम अस्तित्व के केंद्र बन जाते हो, एक बार तुम जान लेते हो कि तुम अस्तित्व के केंद्र हो, तो सारे दुख मिट जाते है। अब इच्छारहितता सहज स्वाभाविक बन जाती है। किसी प्रयास, किसी मेहनत, किसी संपोषण की आवश्यकता नहीं है। यह बस है, यह स्वाभाविक बन गयी है। तुम खींच या धकेल नहीं रहे हो। अब वहां कोई 'मै' नहीं है, जो इसे खींच और धकेल सकता हो। इसे ध्यान में लेना-यह संघर्ष है, जो अहंकार निर्मित करता है। अगर तुम संसार में संघर्ष करते हो तो यह एक स्थूल अहंकार को निर्मित करता है। शायद तुम अनुभव करो, मैं कोई हूं धनी, मान-सम्मान वाला, सत्तावान। और अगर तुम भीतर संघर्ष करते हो, तो यह एक सूक्ष्म अहंकार को निर्मित करता है। हो सकता है तुम अनुभव करो, मैं शुद्ध हूं मैं संत हूं मैं एक मनीषी हूं लेकिन इस संघर्ष के साथ 'मै' बना रहता है। तो कुछ लोग पवित्र अहंकारी हैं, जिनका बड़ा सूक्ष्म अहंकार है। हो सकता है वे सांसारिक व्यक्ति न हों। वे नहीं होते। वे पारलौकिक होते हैं। लेकिन संघर्ष उनमें होता है। उन्होंने कुछ प्राप्त कर लिया है,लेकिन वह 'प्राप्ति' अब तक 'मैं' की अंतिम छाया ढो रही पतंजलि के लिए वैराग्य की दूसरी और अंतिम सीढ़ी है, अहंकार का पूर्ण विसर्जन। अब स्वभाव मात्र प्रवाहित हो रहा है। कोई 'मैं' नहीं है, कोई सचेतन प्रयास नहीं है। इसका यह मतलब नहीं कि तुम बोधपूर्ण न होओगे। तुम परम चैतन्य होओगे। लेकिन बोधपूर्ण होने में कोई प्रयास निहित नहीं है। कोई अहं-चेतना नहीं होगी, केवल शुद्ध चेतना। तुमने स्वयं को और अस्तित्व को जैसा वह है, स्वीकार कर लिया है। एक समग्र स्वीकृति। यही है जिसे लाओत्स् कहता है ताओ-सागर की ओर बहती हुई नदी। वह कोई प्रयास नहीं कर रही। उसे कोई जल्दी नहीं है सागर तक पहुंचने की। अगर वह नहीं भी पहुंचती, तो वह निराश नहीं होगी। अगर वह लाखों वर्ष बाद भी पहुंचे, तो भी सब ठीक है। नदी तो बस बह रही है, क्योंकि बहना उसका स्वभाव है। कोई प्रयास नहीं। वह बहती ही जायेगी।