________________
तुम बीमार होते हो, रोगग्रस्त हो। चिकित्सा की तो तब आवश्यकता आ पड़ती है अगर तुम रोगात्मक हो। लेकिन अनुशासन की आवश्यकता तो स्वस्थ होने पर भी है। वास्तव में अनुशासन तो सहायक ही तभी होता है जब तुम स्वस्थ होते हो।
रोगियों के लिए योग नहीं है। यह उनके लिए है जो चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से तो पूरी तरह स्वस्थ हैं। जो सहज-सामान्य हैं। जो स्किड्जोफ्रीनिक (खंडित-मनस्क) नहीं हैं; पागल नहीं हैं, न्यूराटिक (विक्षिप्त) नहीं हैं। वे सहज सामान्य लोग हैं, स्वस्थ लोग हैं जिन्हें कोई रोग नहीं। फिर भी वे जान गये हैं कि जिसे सामान्य कहा जाता है वह व्यर्थ है; जिसे स्वास्थ्य कहा जाता है वह भी बेकार है। कुछ और चाहिए, कुछ ज्यादा विशाल चाहिए, कुछ ज्यादा स्वस्थ, ज्यादा पावन और ज्यादा समग्र चाहिए।
चिकित्साए बीमार लोगों के लिए होती हैं। चिकित्साएं तुम्हारी सहायता कर सकती है योग तक आने के लिए, लेकिन योग चिकित्सा-वितान नहीं है। योग स्वास्थ्य की एक अलग और ऊंची दशा के लिए है, एक भिन्न प्रकार की समग्रता और सत्ता के लिए है। चिकित्साशास्त्र अधिक से अधिक यही कर सकता है कि तुम्हें व्यवस्थित कर दे, समायोजित कर दे। फ्रायड भी कहता है कि हम इससे अधिक और कुछ नहीं कर सकते। हम तुम्हें समाज का एक सामान्य, समायोजित सदस्य बना सकते हैं। लेकिन यदि समाज स्वयं ही रुका हो तब क्या किया जाये? और ऐसा है। समाज खुद ही बीमार है। कोई चिकित्सा तम्हें सहज बना सकती है तो इसी लिहाज से कि तम समाज के अनुकूल हो जाओ, लेकिन समाज तो स्वयं बीमार है, अस्वस्थ है।
इसलिए कई बार यही होता भी है कि एक बीमार समाज में स्वस्थ व्यक्ति को बीमार समझ लिया जाता है। जीसस को बीमार समझा गया और हर प्रयत्न किया गया उन्हें अनुकूल बनाने के लिए। और जब यह जान लिया गया कि उनके बदले जाने की कोई भी आशा नहीं तो उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया। जब जान लिया गया कि अब कुछ किया ही नहीं जा सकता, कि यह आदमी असाध्य है, तब उन्हें सूली पर चढ़ाया गया!
समाज स्वयं बीमार है क्योंकि समाज है कुछ नहीं, केवल तुम्हारा सामूहिक स्वप्न है। यदि किसी समाज के सारे लोग ही बीमार हैं, तो समाज बीमार है और उसके हर सदस्य को रुग्ण समाज के साथ समझौता करना होता है। योग चिकित्सा नहीं है,योग किसी भी स्वप्न में यह कोशिश नहीं करता कि समाज के साथ तुम्हारा सामंजस्थ किया जाये। यदि तुम समन्वय या सामंजस्य की भाषा में ही योग की व्याख्या करना चाहते हो, तब यह समन्वय समाज के साथ नहीं, योग समन्वय है अस्तित्व के साथ, दिव्य सत्ता के साथ।
यह हो सकता है कि एक श्रेष्ठ योगी तुम्हें पागल मालूम पड़े। ऐसा लग सकता है कि इंद्रियां उसके वश में नहीं, दिमाग फिर गया है उसका; क्योंकि अब वह किसी अधिक विराट, किसी अधिक