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रिंभ और अंत सोचो। यदि तम में मौन बीज हुआ है। अत: आरंभ तो बीज है। आरंभ
और अंत दो चीजें नहीं है। आरंभ अंत है। इसलिए दोनों को बांटो मत और दवैत की भाषा में मत सोचो। यदि तम अंत में मौन होना चाहते हो, तो तम्हें मौन को आरंभ करना होगा बिलकल आरंभ से ही। आरंभ में मौन बीज की भांति होगा, अंत में वह वृक्ष बन जायेगा। लेकिन वह वृक्ष बीज में ही छिपा हआ है। अत: आरंभ तो बीज है।
जो कुछ भी परम उद्देश्य है, वह अभी और यहीं छिपा हुआ है, तुममें ही, बिलकुल प्रारंभ में ही। अगर वह वहां आरंभ में ही नहीं है, तो तुम उसे अंत में नहीं पा सकते। स्वभावत: अंतर तो होगा। आरंभ में वह केवल बीज हो सकता है, अंत में वह समग्र रूप से खिल जायेगा। हो सकता है तुम उसे पहचान न पाओ जबकि वह बीज होता है, लेकिन वह वहां है; चाहे तुम उसे जानो या नहीं। इसलिए जब पतंजलि कहते हैं कि यात्रा के एकदम आरंभ में ही अनासक्ति की आवश्यकता होती है, वे नहीं कह रहे हैं कि अंत में इसकी आवश्यकता नहीं रहेगी। आरंभ में अनासक्ति चेष्टा सहित होगी, अंत में अनासक्ति सहज होगी।
आरंभ में तुम्हें इसके प्रति सचेत रहना होगा, अंत में इसके प्रति सचेत होने की कोई आवश्यकता न रहेगी। यह तो बस तम्हारा स्वाभाविक प्रवाह होगा।
आरंभ में तुम्हें इसका अभ्यास करना होता है। सतत जागरूकता की आवश्यकता होगी। एक संघर्ष होगा तुम्हारे अतीत के साथ, तुम्हारी आसक्ति के ढांचों के साथ। संघर्ष तो वहा होगा। लेकिन अंत में कोई संघर्ष नहीं रहेगा, कोई विकल्प नहीं, कोई चुनाव नहीं। तुम बस कामना-रहितता की दिशा की ओर प्रवाहित होओगे। यह तुम्हारा स्वभाव बन जायेगी।
लेकिन ध्यान रहे, जो कुछ भी उद्देश्य है उसका बिलकुल शुरू से अभ्यास करना पड़ता है। वह पहला कदम ही अंतिम भी है। अत: बहुत सतर्क रहना पड़ता है पहले कदम के प्रति। यदि पहला कदम सम्यक दिशा में होता है, केवल तभी अंतिम की उपलब्धि होगी। अगर तुम पहले कदम को गंवा देते हो, तो तुमने सारे को गंवा दिया होता है।
__इसके प्रति श्रम बार-बार तुम्हारे मन में उठेगा, इसलिए इसे समझो गहरे ढंग से। क्योंकि पतंजलि कई बातें कहेंगे जो लगती हैं अंतिम लक्ष्य की भांति। उदाहरण के तौर पर-अहिंसा अंत है, साध्य है। व्यक्ति इतना करुणामय बन जाता है, इतने गहरे रूप से प्रेम से भरा हुआ कि उसमें कोई हिंसा नहीं होती, हिंसा की कोई संभावना नहीं। प्रेम या अहिंसा अंत है। लेकिन पतंजलि आरंभ से ही इसका अभ्यास करने को कहेंगे।