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भीड़ वहां इकट्ठी हो गयी। वह कुछ असंभव बात कर रहा था। उन्होंने परिचारक से पूछा, 'क्या बात है' यह आदमी क्या कर रहा है? '
परिचारक बोला, 'इतने जोर से मत पूछो। अपने अतीत में इस आदमी को कारों से प्यार रहा, बस यही है बात। उसकी गिनती श्रेष्ठ ड्राइवरों में हुआ करती थी। वह कारों की दौड़ में राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीत चुका है। लेकिन अब किसी मानसिक दोष के कारण, वह निकाला जा चुका है। उसे कार नहीं चलाने दी जाती, लेकिन पुरानी आदत उसके साथ बनी हुई है बस।
भीड़ ने कहा, 'यदि तुम यह जानते हो, तो उसे कहते क्यों नहीं कि तुम्हारे पास कार नहीं है; तुम यहां क्या कर रहे हो?'वह आदमी बोला, 'इसीलिए मैंने कहा था, बहुत जोर से मत बोलो। मै यह उससे नहीं कह सकता, क्योंकि वह मुझे हर रोज एक रुपया देता है कार धोने का। इसलिए मै ऐसा नहीं कर सकता। मैं नहीं कह सकता कि तुम्हारी कोई कार नहीं है। वह कार पार्क करने जा रहा है और तब मैं उसे धोऊंगा।'
उस एक रुपये का लोभ, वह निहित स्वार्थ वहा है। तुम्हारे बहुत से निहित स्वार्थ हैं तुम्हारे दुख में, तुम्हारी मनोव्यथा में,तुम्हारी बीमारी में भी। और तब तुम कहे चले जाते हो, 'लेकिन मैं इसे चाहता नहीं। मैं क्रोध नहीं चाहता; मैं यह या वह नहीं होना चाहता। लेकिन जब तक तुम जान न जाओ कि कैसे ये सारी बातें तुममें घटित हुई हैं, जब तक तुम समझ न लो सारा ढंग, तब तक कुछ नहीं बदला जा सकता।
मन का सबसे ज्यादा गहरा ढांचा इच्छा है। जो कुछ तुम हो, वह इसलिए हो कि तुम्हारी निश्चित इच्छाएं हैं, इच्छाओं का समूह है। इसलिए पतंजलि कहते है, 'पहली चीज गैर-मोह है।' सारी इच्छाएं गिरा दो। आसक्त मत बने रहो। और फिर है,अभ्यास।
उदाहरण के लिए कोई मेरे पास आता है और कहता है, 'मैं मोटा नहीं होना चाहता। मैं अपने शरीर में और ज्यादा चरबी इकट्ठी नहीं करना चाहता, लेकिन मैं खाये ही जाता हं! मै इसे रोकना चाहता हूं लेकिन मैं खाता ही जाता हूं।'
यह चाहना ऊपरी है। ऐसा है, क्योंकि भीतर एक ढांचा है और इसीलिए वह ज्यादा, और ज्यादा खाये चला जाता है। और अगर वह कुछ दिनों के लिए रुक भी जाये, तो वह फिर शुरू कर देता है, और खाता है ज्यादा जोश के साथ। और कुछ दिनों के उपवास करने और नियंत्रित भोजन करने द्वारा उसने जितना खोया उससे कहीं ज्यादा वजन इकट्ठा कर लेगा। और ऐसा लगातार हो रहा है वर्षों से। यह कम खाने की बात नहीं है। क्यों वह ज्यादा खा रहा है? शरीर को यह नहीं चाहिए, लेकिन कहीं मन में भोजन किसी चीज के बदले परिपूरक बन चुका है।