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अकेले ही नहीं हो, लाखों लोग जूझ रहे हैं अपनी इच्छाओं के लिए, जो सभी एक-दूसरे को आड़ीतिरछी काट रही हैं। वे एक-दूसरे के रास्ते में आ जाती हैं। इसलिए अगर तुममें इच्छाएं हैं,तो क्रोध आयेगा ही; विषाद बनेगा ही; हिंसा होगी ही। और जो कोई तुम्हारे रास्ते में आता है तुम्हारा मन उसे नष्ट करने की सोचेगा।
बाधा को नष्ट करने की यह मनोवृत्ति क्रोध है। लेकिन क्रोध दुख निर्मित करता है, इसलिए तुम क्रोधित होना नहीं चाहते हो। लेकिन केवल क्रोध न करने की चाहना कोई ज्यादा सहायक नहीं होगी, क्योंकि क्रोध एक ज्यादा बड़े ढांचे का हिस्सा है-उस मन का, जो इच्छा करता है; मन, जो कही पहुंचना चाहता है। तुम क्रोध को गिरा नहीं सकते।
तो पहली बात है इच्छा न करना। तब क्रोध की आधी संभावना गिर जाती है, बुनियाद ही गिर जाती है। लेकिन फिर भी यह जरूरी नहीं है कि क्रोध मिटेगा ही, क्योंकि तुम लाखों वर्षों से क्रोध करते चले आ रहे हो। यह गहराई में उतर गयी एक गहरी आदत बन चुका है।
तुम इच्छाओं को गिरा सकते हो, लेकिन क्रोध फिर भी बना रहेगा। यह उतना प्रबल नहीं होगा, लेकिन यह अड़ा रहेगा क्योंकि अब यह एक आदत है। यह एक अचेतन आदत बन चुका है। बहुत-बहुत जन्मों से तुम इसे ढो रहे हो। यह तुम्हारी आनुवंशिकता बन चुका है। यह तुम्हारी कोशिकाओं में है, शरीर ने उसे धारण कर लिया है। यह अब रासायनिक और दैहिक है। तो तुम्हारी इच्छाओं को तुम्हारे गिराने भर से ही तुम्हारा शरीर अपना ढांचा नहीं बदलने वाला। ढांचा बहुत पुराना है। तुम्हें इस ढांचे को भी बदलना पड़ेगा।
इस परिवर्तन के लिए आवृत्तिमूलक अभ्यास की जरूरत होगी। आंतरिक देह-संरचना को बदलने के लिए दोहराये जाने वाले अभ्यास की जरूरत होगी; सारे शरीर-मन के ढांचे को नया करने की जरूरत होगी। लेकिन यह संभव है केवल यदि तुमने इच्छा करना गिरा दिया है।
इसे दूसरे दृष्टिकोण से देखो। एक आदमी मेरे पास आया और कहने लगा, 'मैं उदास नहीं होना चाहता, पर मैं हमेशा उदास और थका हुआ रहता हूं। कई बार मैं जानता भी नहीं क्या कारण है, क्यों उदास हूं मैं, लेकिन मैं उदास होता हूं। प्रत्यक्ष कारण कोई नहीं होता है, ऐसा कुछ नहीं जिसका मैं ठीक-ठीक पता लगा सकं और कह सकं कि यह कारण है। ऐसा लगता है कि उदास रहना मेरा ढंग ही बन गया है। मुझे याद नहीं कि मैं कभी खुश भी था। और मैं उदास नहीं होना चाहता हूं। यह एक मृत बोझ है। मैं सबसे ज्यादा दुखी आदमी हूं। अपनी उदासी मैं कैसे छोड़ सकता हूं?'
मैंने उससे पूछा, 'क्या तुम्हारी उदासी में तुम्हारी कोई लागत लगी है?' वह बोला, 'क्यों लगी होनी चाहिए मेरी कोई लागत?' लेकिन थी उसकी लागत। मैं इस व्यक्ति को अच्छी तरह से जानता था। मैं इसे बहत वर्षों से जानता था। लेकिन वह सजग नहीं था कि कोई निहित स्वार्थ उसमें है। वह