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हो, महामारी फैली हो, भूकम्प आया हो, बाढ से बस्तिया घिरी हो, मारare मची हो- मनुष्य जूझ जाता है, मर मिटता है । मानव-सभ्यता का इतिहास ऐसी अनेक वीर गाथाओं से भरा पडा है। इस सिरे पर मनुष्य ऊपर से निडर बना है, लेकिन जाने क्यो उसने भीतर-ही-भीतर भय के दोहरे - तिहरे शतगुने ताने-बाने अपने चारो ओर बुन लिये है । हर मनुष्य के अपने भय हैं, अपने जाल हैं, अपनी कारा है जिसे तोडकर वह बाहर नही निकलता । वह यह जानता है कि जिन रेखाओ को लाब कर उसके कदम बाहर नही पड रहे, वे उसकी खुद की बनायी रेखाएं है । और चाहे तो वह साहसपूर्वक उन्हे तोड सकता है, पर ये परिधिया उससे टूट नही रही, बल्कि और-और गहरी होती जा रही हैं ।
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वह कौनसी चौखट है जिसमें मनुष्य कैब है ? पहली तो यह कि, वह परम्पराओं का गुलाम है । उस पर लदे बहुत से रीति रिवाज, विधिविधान, नियम व्रत बे-मतलब हैं । कुछ तो हास्यास्पद हैं, अन्ध-विश्वासो और कुमान्यताओ पर टिके हैं। पूजा-अर्चना की बहुत-सी विधिया, पाप और पुण्य की कल्पनाएँ, स्वर्ग और नरक के ख्वाब, श्राद्ध, पिण्डदान, पडागिरी -- सब भय पर आधारित है । हमारे ओझाओ, ज्योतिषियो, मौलवियो, पडितो और शास्त्रियों ने मनुष्य के इस भय को सोच-सीच कर और और पक्का किया है । जत्र-तत्र-मंत्र भी इसी दिशा में माइलस्टोन ( मील का पत्थर ) हैं । अपने आत्म-विश्वास, सदगुण, उज्ज्वल चरित्र, सकल्प - शक्ति और धैर्य-निष्ठा का सहारा छोड़कर मनुष्य कर्म-काण्ड मे फँसता है और मत्र-तत्र की माया मे उलझता है । इससे उसकी वीरता मद होती है । उसकी कर्तव्य-शक्ति कुण्ठित होती है प्रकाश की एक हल्की रेखा उसके दिमाग में कौधती है और आत्मा पुकार कि यह पाखण्ड है, पर आत्मा की यह पुकार मनुष्य अनसुनी करता है । वह जानता है कि यज्ञ-जाप, मडल-विधानो से और अखड कथाओ से द्रवीभूत होकर आसमान से पानी नही बरसने का, उसके पितर श्राद्ध से
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कर कहती है
जीवन मे ?
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